क्या करूँ कैसे बताऊँ जन्म-जन्म की कथाएँ
जो समय की कर्मनाशा में अकारण मिल गई
जन्म लेता लुप्त होता धार में जल बिंदु सा
फिर अचानक कथ्य की अभिव्यक्ति तुम खिल गई
स्वप्न की अवरुद्ध भाषा में अनागत खो गया
जड़ समय कि इस अँधेरी ओट में ही सो गया
क्या करूँ कैसे भुलाऊँ रक्तरंजित आस्था को
सर्पवर्णी यातना की जो कहानी कह गई
जन्म- जन्मों की कथायें दूरियों में बह गई
बँद कारा में हृद्य है कि आज झँझावात छाए
हैं विकल यह प्राण मेरे गीत प्रिय कि कौन गाए
क्या कहूँ कैसे सुनाऊँ गूँजती करुणा तुम्हारी
चीर कर सुनी दीवारेँ धुँध में ही रह गई
बस समय की कर्मनाषा साथ मेरे रह गई
आत्मा के इस अधूरे अवतरण की गोद में
क्योँ अकारण ही सिमटती प्रेम के आमोद में
क्या करूँ कैसे जगाऊँ ऊँघती अनुरक्ति को
जो उनीदी रात में ही येँ सिमट कर रह गई
कल्पना के चिन्ह सी ये आँसुओं में बह गई
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