( उपन्यास सम्राट कलम के सिपाही प्रेमचंद जी द्वारा रचित पूस की रात कहानी के सारांश पर आधारित )
पूस की वो ठंडी रात ,
हल्कू और जबरा थे साथ ।
ठंड से दोनो कांप रहे,
जला अलाव को ताप रहे ।
गरीब किसान हल्कू बेचारा ,
जबरा नामक उसका कुत्ता प्यारा ।
बचाकर रखें थे रुपए तीन
वो भी ले गए कर्जदाता छीन
रूपए रखे थे कि कंबल खरीदूंगा,
कर्जदाता का पैसा फ़सल पे दूंगा ।
लेकिन कर्जदाता कहां रुकने वाले
नहीं तो सहने पड़ेंगे गाली और ताने
अब बेचारा क्या करता
वहीं हुआ जो डर था
चिलम पीकर समय काटता,
ठंड से बचाव हेतु अलाव जलाता,
जैसे तैसे रात बिताता,
अलाव के पास से अब उठा न जाए
खेत को खा जाती फिर नील गाय
सो गया वही धरती पर चादर बिछाकर,
हुआ हैरान खेत को उजड़ा पाकर,
पत्नी बोली बात सुनो जरूरी
अब तो करनी पड़ेगी मजदूरी
मन ही मन सोच रहा एक बात
चलो नहीं सहनी होगी अब पूस की रात ।।
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