होली (दोहा)

होली के त्यौहार की, पौराणिक पहचान।

महा भक्त प्रह्लाद की, कथा उचित उनवान।।

श्रीहरि का वह भक्त था, निर्मल और विशुद्ध।

हिरण्यकश्यप हो गया, स्वयं पुत्र पर क्रुद्ध।।

अग्नि बीच में होलिका, बनी बैठ जल्लाद।

मगर होलिका जल गई, और बचे प्रह्लाद।।

मदहोशी में झूमता, अनुपम मलय समीर।

गोरे-गोरे गाल पर,फबता रंग अबीर।।

पिचकारी से छूटती, रंग-बिरंगी धार।

दूर भगाकर द्वेष को, बाँटे सबमें प्यार।।

सतरंगी शृंगार से, आया रूप निखार।

फागुन में लगती प्रिए, कितनी लज्जतदार। 

रंग पिया ने डालकर, किया मुझे मदहोश।

अंग-अंग में भर दिया, प्रणय दिवस सा जोश।।

अलसाई इस देह में, उठती नई उमंग।

पोर-पोर सरसा रहा, फागुन पिय के संग।।

रंग लगाओ साजना, रगड़-रगड़ कर गाल।

रहूँ प्रीत में बाँवरी, प्रियतम सालो-साल। 

अंग-अंग इठला रहा, आनन्दित अरमान।

रंग प्रीत का है सखी, फागुन का उनवान।।

बेशक होली पर करें, मित्रों ख़ूब धमाल।

पर रंगों को छोड़कर, खेलें आप गुलाल।।

जीवन भर भूलूँ नहीं, होली का त्यौहार।

हर्षित मन होता यहाँ, देख सभी का प्यार।।

पड़ी हुई बेरंग है, अरमानों की सेज।

रँग दे गहरी प्रीत से, ओ! प्रियतम रँगरेज।।

भीग गया सारा बदन, आती मुझको लाज।

कसम प्यार की है तुम्हें, छोड़ पिया दो आज।।

होली में इतरा रही, बाँकी छोरी यार।

बुड्ढे उस पर छोड़ते, पिचकारी की धार।।

होली के हुड़दंग में, सा रा रा रा शोर।

देवर-भाभी खेलते, होकर भाव विभोर।।

डालो मुझ पर प्रीत का, रंग पिया इस बार।

रहे चमकता उम्र भर, द्वय कपोल रतनार।।

घाघर-चोली में प्रिए, करती ख़ूब धमाल।

रंग रगड़ने पर वही, हर पल करे बवाल।।

फगुआ में बौरा गए, जुम्मन और जमाल।

बच्चे तो बच्चे यहाँ, बूढ़े करें कमाल।।

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रचनाकार

Author

  • कृष्णा श्रीवास्तव

    कृष्णा श्रीवास्तव,हाटा, कुशीनगर,उत्तर प्रदेश-274203. Copyright©कृष्णा श्रीवास्तव/इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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