सुन री मेरी मनोरमे, नव वर्ष का आना बाँकी है,
हिन्द व हिंदी माँ, उर्दू जैसी मौसियों, को मनाना है।
बसंत पंचमी से, माँ का पद रज गुलाल,
लाल के ललाट पर है, लग चुका,
अब, प्रकृति से, बसंती रंग माँगकर, रंग लाल लासानी है,
अब मरकट की भाँति, हमकों फगुनहट,में उधम मचानी है।
कच्चे लोहे को, लोहार की भांति में और जरा तपआनि है,
मौत का एक दिन मुआइयन है, तब तलक,
सेतुबंध सारे जीवन का, पार तो कर लूं,
हिंदी भारत,माँ का खोइच्छा, मैथिली बज्रिका से भरवा लू।
सुन मनोरमे, आ शिव विवाह की तैयारी कर लूं
उतार के अपना स्वप्न शिवा की आंखों में,
अतिप्रिय छवि माँ को, दिखाने की, मांग पुरानी है,
एक ज़रा सी, कालिख लगा, हमको नजर बचानी है।
फगुनहट बयार में, सच्चे प्यार की सुगंध, घुलआनी है, अपने भटके भाइयो के मन से,
विदेशी, छनिक वैलेंटाइन की दुर्गन्ध हटानी,
ज़ोर, जबरदस्ती नही, प्रेम से प्रेम की अलख जगानी है।
राधा रानी, और जोगन मीरा की, कहानी सबको बतानी है,
नव वर्ष अपने प्रेम वाला प्राकृतिक, हृदय में जगानी है,
पशुपतिनाथ का पारस, स्पर्श पत्थर हृदयों में करानी है,
अभी तो मेरी मनोरमे, बाँकी कई कहानी है।
अपनी रामायण, भारती के धुन में सभी को सुननी है,
नव वर्ष अभी तो आनी है, गुजरी बस कुछ ही कहानी है।