रेत का घर

घास फूस की झोपड़ी में रहने वाला रामस्वरूप भले हीं अनपढ़ हो पर उसकी कारीगिरी को देखकर लोग दंग रह जाते हैं ,गांव से शहर तक ना जाने कितने बंगले उसने खड़े कर दिए जिसे देखकर बड़े-बड़े इंजीनियर भी चकित हो जाते हैं । उन महलों में रहने वाले बाबू – बाबुआन लोग आराम की जिंदगी काट रहे हैं परंतु रामस्वरूप की किस्मत में यह कहां कि अपने लिए भी दो चार ईंट जमा कर आंगन के किसी कोने में एक छोटी सी तुलसी की पीड़ भी बना सके । अंधेरी रात में घर के अंदर से आसमान में दिखने वाले चांद सितारे दिवाली की रात की तरह लगते हैं । उसकी पत्नी शामली कह कह के थक गई कि लोगों के लिए इमारत खड़े करने वाले , अपनी झोपड़ी ठीक नहीं कर सकते तो कम से कम झांझर पड़े ठाट पर दो-चार सीमेंट की बोरियां तो बिछा दो जिससे रात को ये आसमान के तारे दिखाई ना दे । तुम्हें क्या पता कि इस दुधमुंहे बच्चे को लेकर किस तरह बरसात की रात काटती हूं । घर में पानी का रेत बहने लगता है तो इस कोने से उस कोने उस कोने से ईस कोने लुकाछिपी करती रहती हूं । तुम तो पौ पहर के लिए हीं घर आते हो। आराम से मालिक के बंगले में हीं रात कट जाती है । आते भी हो तो अपने बच्चे को देखने हम जनीं जात हैं हीं दुख झेलने के लिए।

वाह रे भगवान ! क्या निसाफ करता है, महल बनाने वाले की झोपड़ी पर घास तक नहीं ,गौमाता भी धूप पानी सह सह के दिनों दिन झांझर होती जा रही है क्या करें हमारी तो किस्मत हीं फूटी है ।

सामली जो एक बार बोलना शुरू की तो बोलती हीं रही, बोलते बोलते सिसकने लगी । सामली को रोते देख रामस्वरूप के भी आंखों में आंसू आ गए प्यार से सिर पर हाथ फेरता हुआ बोला -भगवान को मत कोश सामली! भरोसा रख जी गया तो अपने लिए ना सही पर अपने मुन्ने के लिए हम दो चार ईंट जरूर जोड़ देंगे । चल दोपहर के लिए दो चार रोटियां अंगोछे में बांध दें काम पर जाना है ।

पति का निश्छल प्रेम देखकर शामली खुश हो गई , टूटी फूटी झोपड़ी भी महल जैसी लगने लगी। मन में सोचने लगी गांव में तो मुझसे भी गए गुजरे लोग हैं, कितने लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने घरवालों का जीना हराम कर रखे हैं , शाम को दारु गांजा पीकर आ जाते और रात भर गाली-गलौज करते रहते हैं मेरा पति तो ऐसा नहीं करता, कितना प्रेम करता है मुझसे जरा सा मेरी आंख में आंसू क्या देख लिया बच्चों की तरह खुद रोने लगा । पता नहीं मुझे भी क्या हो जाता है एक तो बेचारा दिन भर खट मर के आता है ऊपर से मैं भी जो मुंह में आता है बकती रहती हूं ।

फिर प्यार से पति की ओर देख कर बोली – बुरा मत मानना जी , पता नहीं मैं भी क्या-क्या बक देती हूं।

रामस्वरूप मुस्कुरा कर बोला- अरे नहीं शामली! मैं बुरा नहीं मानता हूं ठीक हीं तो कहती है, कितना दुख काट रही हो तुम ? अच्छा चलो अब जल्दी से रोटी बांध दो इस गमछे में ।

शामली खुश हो गई रोटी के साथ साथ आम का अचार गमछे में बांधती हुई बोली शाम में आने लगोगे तो सीमेंट की कुछ खाली बोरियां लेते आना मैं खुद छप्पर पर बिछा लुंगी ।

रामस्वरूप जोर-जोर से एक खटहरी साइकिल चलाता हुआ गांव से कुछ ही दूर गया था कि एक चमचमाती कार उसके सामने आकर रुकी । कार से एक प्रौढ़ व्यक्ति निकलकर पूछा – भाई रामस्वरूप मिस्त्री का घर इसी बस्ती में है क्या?

जी जी मैं हीं रामस्वरूप हूं कहिए क्या काम है ?

अजी रामस्वरूप जी ! अररिया के शिवपुरी मोहल्ला में शर्मा जी का मकान आप हीं ने बनाया है ना?

जी हां बाबूजी, मैंने हीं बनाया है ,,

अजी बड़ा अच्छा मकान बनाया है। मोहल्ले के सारे मकान उसके आगे बौने दिखते हैं। शर्मा जी ने बताया कि इंजीनियर से नक्शा बनवाया था पर तुमने जो नक्शा बना कर दिया उसे देख कर इंजीनियर का नक्शा धरा का धरा हीं रह गया ।

रामस्वरूप लजा कर बोला- क्या कहते हैं बाबूजी! वो तो शर्मा जी का बड़प्पन है जो मुझ जैसे अनपढ़ गवार की इतनी तारीफ करते हैं ।

अरे नहीं नहीं शर्मा जी हीं क्यों मकान देखकर तो कोई भी तारीफ कर सकता है । अच्छा सुनो रामस्वरूप ! मुझे भी उसी मोहल्ले में एक अच्छा सा मकान बनवाना है पर मकान ऐसा बने कि शिवपुरी मोहल्ला हीं नहीं अररिया भर में उसके जोड़ का मकान ना मिले ।

कारीगिरी का कोई अंतर है क्या बाबूजी ? खर्च करने पर तो एक से एक मकान बन जाएंगे ।

खर्च जितना भी हो जाए पर मकान ऐसा बने कि देखने वाले देखकर दंग रह जाए ।

ठीक है बाबूजी ,आप जैसा चाहेंगे वैसा बन जाएगा, पर अभी मुझे दस रोज का काम बांकी है खत्म होते हीं मैं आ जाऊंगा ।

ठीक है तो तुम अपना नंबर दे दो दस दिन बाद मैं तुम्हें कॉल करके बुला लूंगा,,

अपने पास मोबाइल कहां है बाबूजी, आप हीं अपना टेर पता दे दीजिए मैं आ जाऊंगा।

बस बस शर्मा जी की गली से पीछे वाली गली में किसी को भी बीडीओ साहब का मकान पूछ लेना।

जी ठीक है बाबूजी ,मैं आ जाऊंगा ।

तो ठीक है पक्का ग्यारहवें रोज आ जाना ये लो कुछ पैसे रख लो खाते-पीते बस से आ जाना,,

अरे नहीं नहीं बाबूजी , रुपए की जरूरत नहीं है मैं अपनी साइकिल से हीं आ जाऊंगा।

अच्छा तो मैं चलता हूं याद रखना एकदम ग्यारहवें रोज,,

जी जी एकदम याद रहेगा ।

ठीक ग्यारहवें रोज रामस्वरूप वीडियो रामकृपाल वर्मा के घर जा पहुंचे । एक से बढ़कर एक नक्शे बनाए गए एक करोड़ के बजट से बनने वाला तीन मंजिला नक्शा पर काम शुरू हुआ । रात दिन के कठोर परिश्रम से तीन महीने में ही पहली मंजिल बनकर तैयार हो गया । मकान की सुंदरता देखकर वर्मा जी फूले न समाते थे ।

बड़े बड़े बाबू बबुआनों की गाड़ी मकान के सामने आकर रुके बिना आगे नहीं बढ़ती। देखने वाले कहते वाह ! इंजीनियर ने क्या नक्शा बनाया है? मोहल्ले वाले कहते अरे भाई! ब्लॉक की काली कमाई का अंत है क्या? चाहे तो लाल किला भी छोटा पड़ जाए ।

एक दिन घूमते घामते शर्मा जी पधारे तो मकान का नैन नक्श देखकर दंग रह गए हंसते हुए रामस्वरूप से बोले वाह भाई रामस्वरूप! वर्मा जी से घूस मिला है क्या? अरे हमने भी तो जी खोलकर खर्च किए पर मेरा मकान तो इतना सुंदर नहीं बना ?

रामस्वरूप शांत भाव से बोला घूस वूस की कोई बात नहीं है बाबूजी ! मकान में खर्च का कोई अंत है क्या ? इससे भी ज्यादा खर्च किया जाए तो और भी अच्छा मकान बन जाएगा।

वर्मा जी झुंझला कर बोले -ये क्या कहते हो रामस्वरूप ! इससे भी अच्छा ? तो क्या तुम अपनी कारीगिरी छुपा के रखते हो क्या ?

नहीं नहीं बाबूजी ! कारीगिरी भला छुपाने की चीज है क्या ? मैं कोई पढ़ा-लिखा इंजीनियर तो हूं नहीं जो पोथी पतरा से नक्शा बनाकर उसके अनुसार काम करूं बस काम करते-करते मन में जो कला उभरती है उसी को उतार लेता हूं ।

जो भी हो दूसरी मंजिल ऐसा बनाओ कि फिर ये कहने के लिए नहीं रहे कि इससे भी अच्छा बन सकता है, पैसा जो भी लगे उसकी परवाह मत करो ।

ठीक है बाबू जी , कहकर रामस्वरूप अपने काम में मगन हो गया ।

छः महीने में दूसरी मंजिल भी तैयार हो गई, मकान देखकर खुद रामस्वरूप को भी विश्वास नहीं होता कि इतना सुंदर मकान उसी ने बनाया है । इधर छःमहीने से रामस्वरूप घर का रास्ता भूल सा गया था बस महीने में एक आध बार राशन पानी पहुंचाने आ जाता था वह भी शनिवार की रात तक पहुंचता रविवार को सुबह हीं निकल जाता। उसका मुन्ना दो साल का हो गया था अब वह पापा – पापा बोलने लगा था पर वह अबोध बच्चा अपने पापा को पहचानता कहां था ।

रात को शामली अपने पति से बोली- भला इस तरह भी कोई कामकाज करता है ? तुमसे अच्छा तो पंजाब दिल्ली कमाने वाला साल भर में एक हीं बार आता है तो क्या दस बीस रोज रुक कर हीं जाता है । मुन्ना दिनभर पापा पापा करते रहता है ।

रामस्वरूप अपने मुन्ने का चांद जैसा मुखड़ा चूम कर बोला अरे शामली इसी के लिए तो दिन रात मेहनत करता हूं । किसी तरह इसके सिर पर भी दो हाथ का छत हो जाए। दो हाथ का छत सुनकर शामली निहाल हो जाती , क्यों ना होती सावन भादो का दुश्मन मेघ तो इन गरीबों को सताने के लिए हीं बरसता है । सावन की काली घटा देखकर मोर मोरनी क्या नाचते हैं, नाचते तो हैं महलों में रहने सोने वाले लोग , अपनी बालकनी या फिर छत से उमड़ते घुमड़ते बावरे बादलों को देख कर मन छलांग लगाने लगता है। शहर के पार्क में प्रेमी-प्रेमिका हो या गांव के खेत खलियान में युवक युवतियां , उनके तन बदन में लगी आग को तो बादल हीं अपने शीतल जल से तृप्त कर शांत करता है ,पर इन दुखियों का मन तो कांपने लगता है काले बादलों को देखकर।

शामली किसी तरह सीढ़ी के सहारे छप्पर पर चढ़ तो गई पर जैसे हीं बोरियां बिछाती तेज हवा उसे उड़ा कर नीचे गिरा देती। क्या करती बेचारी नीचे से बोरियां पकड़ाने वाला भी तो कोई नहीं था। बकरी लेकर आ रही बुचिया माय से देखा नहीं गया तो बकरी छोड़कर दौड़ पड़ी बोरियां पकड़ाने । बेचारी सामली किसी तरह बोरियां बिछाती पर हाथ हटते हीं तेज हवा में उड़ कर नीचे गिर जाती। अंत में बिछाने वाली सलगी को बोरियों के ऊपर से डाल दिया ताकि हवा में बोरियां उड़ ना सके ।

वर्मा जी का तीन मंजिला मकान एक साल में बनकर तैयार हो गया । वर्मा दंपति मकान की खूबसूरती देखकर शरद पूर्णिमा के चांद की तरह खिल रहे थे । क्यों नहीं खिले शिवपुरी मुहल्ला तो क्या पूरे अररिया में उसके जोड़ का कोई मकान नहीं था । आने जाने वाले राहगीर देखते तो देखते हीं रह जाते । मुहल्ले के जो लोग अपने मकान को अति सुंदर समझ रहे थे वे अब मन मसोस कर रह जाते । शर्मा जी की पत्नी तो जल भून कर रामस्वरूप को हजारों हजार गालियां देने लगी – “मुंह में आग लगे निगोड़े का , मैंने कौन सा कोर कसर रखा जो बजरखसुवा मेरा घर बनाते समय अंधा हो गया, वर्मा की बीवी कौन सा मख्खन मलाई चटाती है जो नटियबा का दिमाग में चार चांद लग गया ।”

वर्मा जी के घर में बड़े-बड़े लोगों का तांता लगा रहता था । एक दिन कुछ लोगों के साथ वे छत पर बैठे थे , हंसी मजाक चल रहा था । सब मकान बनाने वाले राजमिस्त्री की तारीफ कर रहे थे । एक ने कहा भाई कहां का है यह राजमिस्त्री लगता है खानदानी राजमिस्त्री है । वर्मा जी हंस कर बोले अरे हां बहुत बड़े खानदानी, ताजमहल बनाने वाले का परपोता है । सभी जोर जोर से हंसने लगे।

वर्मा जी का दो साल का बेटा छत पर गेंद से खेल रहा था । खेलते खेलते वह छत की पश्चिमी छोर पर चला गया । छत के उस हिस्से में रेलिंग लगी हुई नहीं थी । गेंद गडकती हुई छत से नीचे गिर गई । बच्चा गेंद के पीछे भागता हुआ छत से नीचे गिरने हीं वाला था कि रामस्वरूप की नजर पड़ गई वह जोर से चिल्ला उठा बाबूजी ! मुन्ना कहता हुआ बांस की सीढ़ी के साथ धांय से नीचे छत पर गिर गया ।

छत पर काम करने वाले मजदूर दौड़कर मुन्ना को तो गिरने से बचा लिया परंतु रामस्वरूप अपना पैर नहीं बचा सका । लोहे की पाइप में टकराने से पैर की हड्डी टूट गई । वह दर्द से छटपटाने लगा । वर्मा और उसकी पत्नी अपने बेटे के बाल बाल बच जाने से उसे सीने से लगाकर ऊपर वाले को लाख-लाख धन्यवाद देने लगे । उन्हें कहां ध्यान था कि उसके जिगर के टुकड़े को ऊपर वाला ने नहीं जिसने बचाया वह दर्द से कराह रहा है । वर्मा जी के कुछ दोस्त रामस्वरूप के पास जाकर ढाढस देने लगे । एक ने जाकर वर्मा जी से कहा – अरे भई ! मुन्ना को तो कुछ नहीं हुआ ऊपर वाले की दया से ठीक है पर जिस बेचारा ने इसे बचाया उसकी हालत तो देखो , उसका पैर टूट गया है किस तरह बेचारा छटपटा रहा है ।

रामस्वरूप को अस्पताल लाया गया । जांच पड़ताल कर डॉक्टर ने बताया कि पैर की हड्डी कई जगह टूट गई है ऑपरेशन करके जोड़ना पड़ेगा । वर्मा जी डॉक्टर को एकांत में ले जाकर कहा यहां रहेगा तो मेरा सिरदर्द बना रहेगा इसे पूर्णिया रेफर कर दीजिए ।

रामस्वरूप पूर्णिया सदर अस्पताल में कई महीने तक ठीक होने के इंतजार में पड़ा रहा । ऑपरेशन के समय वर्मा जी डॉक्टर की फीस और कुछ दवाइयां देकर पुनः आने का वादा करके जो गया फिर ना कोई खोज खबर लिया और ना हीं लौट कर देखने आया । सांवली कभी घर तो कभी अस्पताल का चक्कर लगाती रही । बीच की दवाइयां, राशन पानी एवं भाडा भट्टी के खर्च में घर की गाय बकरियां सब बीक गई । दौलत के नाम पर यही एक गाय और दो बकरियां तो थी वह भी नहीं रही । शामली कई बार वर्मा जी से मिलने गई पर लाख कोशिश के बावजूद भी नहीं मिल पाई । इधर कई दिनों से डॉक्टर कहने लगे भई यहां पड़े रहने से ठीक तो नहीं हो जाओगे ? दोबारा ऑपरेशन करके रड़ निकालना होगा तभी ठीक से चल फिर पाओगे । पर बेचारा रामस्वरूप क्या करता ऑपरेशन के लिए दस हजार कहां से लाता ,घर में टूटी झोपड़ी के सिवा कुछ भी नहीं रहा । जेवर के नाम पर शामली के पास एक चांदी की हसूली थी जो ससुराल आते समय दादी ने दी थी वह भी इलाज में बिक गई । वर्मा जी से भी कोई आशा नहीं रही अंत में दूसरा कोई उपाय ना देखकर शामली अपने पति से बोली घर पर जो दो डिसमिल जमीन है उसी को बेचकर रुपया ले आती हूं ।

पीड़ा से कराता हुआ रामस्वरूप बोला नहीं शामली नहीं वही जमीन तो बाप दादा की निशानी है उसे भी भेज दोगी तो रहेंगे कहां और फिर उसी जमीन पर तो अपने मुन्ने के लिए एक छोटा सा घर बनाना है ।

रोती हुई शामली बोली- तुम ठीक हो जाओ तो कहीं भी रह लूंगी, इतनी बड़ी धरती पर कहीं दो हाथ जगह नहीं मिलेगी ? पेड़ के नीचे, सड़क किनारे कहीं भी रह लूंगी ,मुन्ना को पहले बाप चाहिए, बाप रहेगा तो झोपड़ी में भी खुशी-खुशी जिंदगी कट जाएगी ।

नहीं शामली ! उस जमीन को बेचने की बात मत करो उसी दो डिसमिल जमीन के लिए मेरा बाप और चौधरी जमींदार के बीच लड़ाई हुई थी। जमींदार की लाठी से मेरे बाप की जान तो नहीं बची पर जमीन पर किसी तरह झोपड़ी बन गई । जानती हो जब मेरा बाप मारा था ? मरा क्या इसी जमीन के लिए शहीद हुआ था तब मैं साल भर का था भूखे पेट में रस्सी बांधकर मुझे पीठ पर लादकर मेरी मां दर-दर की ठोकरें खाती रही । थाना पुलिस, सीओ कर्मचारी से लेकर ना जाने किन किन के आगे गुहार लगाती फिरती थी । खुद भूखी रह कर दूसरे के घर का मांड़ पिला पिला कर उसने मुझे पाला । वो तो चौधरीऔर ठाकुर में दुश्मनी होने के कारण ठाकुर जी ने मां का साथ दिया इसलिए किसी तरह जमीन हासिल हो गई वरना कहां होती । वह जमीन सिर्फ जमीन नहीं मेरा मां-बाप है फिर कभी उसे बेचने की बात मत करना, कहते-कहते रामस्वरूप की आंखों से आंसू गिरने लगे।

शामली कुछ नहीं बोल पाई। अश्रुपूर्ण नेत्रों से कभी पति का तो कभी बेटे का मुंह ताकती रही । रामस्वरूप शामली का हाथ पकड़कर बोला -चलो शामली ! किसी तरह मुझे वर्मा जी के पास ले चलो देखता हूं कैसे मुझसे नहीं मिलता है आखिर उसी के बेटे की जान बचाने में मेरा यह हाल हुआ है । वही एक बेटा तो है शर्मा जी को कुल का दीपक है , उसकी जान बचाई है मैंने । वह मेरे लिए कभी मुंह नहीं मोडेगा । देखना मुझे देखते हीं कैसे दौड़ कर आएगा अभी तो उसके मकान का बहुत काम बाकी है मुझे हीं तो सब पूरा करना है । शामली टुकुर-टुकुर पति का मुंह ताकती रही। गोद में मुन्ना को लिए एक हाथ से पति को सहारा देती हुई किसी तरह अस्पताल से बाहर सड़क तक ले आई।

शाम के पांच बज चुके थे अररिया जाने वाली एक हीं गाड़ी बची थी उसमें भी खचाखच भीड़ पैर तक रखने की जगह नहीं थी । एक भले आदमी ने उसे बीमार देखकर खुद खड़ा रहकर अपनी सीट पर बैठने की जगह दे दी।

अररिया पहुंचते-पहुंचते शाम के सात बज गए। घना अंधेरा और घटाटोप बादल देखकर सांवली कांप गई । बस स्टैंड से शिवपुरी की दूरी दो किलोमीटर थी ।आंधी तूफान आता देखकर एक भी रिक्शावाला जाने के लिए तैयार नहीं हुआ । एक बूढ़ा ठेला वाला जो शिवपुरी का रहने वाला था उसे उधर जाते देख सामली उसके आगे गिड़गिड़ाने लगी- बाबा अबला की मदद करो, मेरा पति बीमार है शिवपुरी तक लेते चलो भगवान आपका भला करेगा बाबा! बूढ़ा जोर से खांसता हुआ बोला चलो बैठ जाओ मुझे भी उधर हीं जाना है । भगवान किसी गरीब की मदद नहीं करता गरीब हीं गरीब का मदद करता है । चलो जल्दी-जल्दी बैठ जाओ जोरों की आंधी आने वाली है ।

बूढ़ा जोर-जोर से ठेला चलाने लगा बीच-बीच में उसे खांसी इतनी तेज हो जाती कि ठेला रोकना पड़ता । उस बूढ़े आदमी की दशा देख शामली सोचने लगी एक हम हीं गरीब दुखिया नहीं हैं, दुनिया तो गरीबों का मेला है, इसी मेले से तो अमीरों की दुनियां में रौनक आती है । हमारा खून पसीना तो उसी के लिए बहता है । वाह रे भगवान! क्या तेरा निसाफ है किसी का महल आकाश को छू रहा है तो किसी के छप्पर पर घास फूस तक नहीं।

अचानक बारिस बुंदा बूंदी से तेज होने लगी। तेज हवा के झोंको के साथ-साथ पानी का जोरदार छींटा शरीर में कपकपी पैदा कर दी । रामस्वरूप के दांत खटखटाने लगे । शामली मुन्ना को छाती से सटाकर बचाने की कोशिश करती रही । बेचारा ठेला वाला खांसते खांसते बेदम होता जा रहा था । जोर-जोर से ठेला चलाकर वर्मा जी के मकान के सामने रुक कर बोला लो आ गया यही माकान है वीडियो साहब का । मकान क्या, किसी राजा महाराजा की हवेली है । साला गरीब जनता का पैसा लूट कर हवेली खड़ा किया है । जानते हो मकान बनाने वाला मिस्त्री साले का बेटा को बचाने में सीढ़ी से गिर गया था । पता नहीं बेचारा का क्या हुआ गरीब आदमी था । साला मक्खीचूस अस्पताल में भर्ती करा कर जो आया फिर पलट कर देखने नहीं गया होगा । मोहल्ले वाले कहते हैं कि उसकी घरवाली ना जाने कितनी बार आई पर साला कमीना आदमी एक बार भी उस दुखियारी से नहीं मिला ।

ढह जाएगी साले की हवेली गरीबों को रुलाता है ।

शामली एक टक उस बूढ़े को देखती रही मन में दबी भावना की वेग उमड़ पड़ी । एक तरफ सावन का मेघ गरज गरज कर बरस रहा था तो दूसरी तरफ शामली की आंखों से धारा प्रवाह आंसू निकल रहे थे । उसे रोती देख बूढ़ा शांत भाव से बोला- क्या हुआ बेटी ! तुम रो क्यों रही हो ,पैसे नहीं हैं क्या ? अरे मैं तुमसे पैसे नहीं लूंगा बोला था ना भगवान नहीं गरीब की मदद गरीब हीं करता है ।

शामली आंचल से आंसू पूछती हुई बोली – बाबा अभी आप जिस आदमी की बात कर रहे थे यही है वह मिस्त्री और मैं इसकी घरवाली हूं। आपकी बात सुनकर रोना आ गया नहीं रोक पाई अपने आंसुओं को ।

शामली की बात सुनकर बुढा अवाक रह गया। रामस्वरूप के सर पर हाथ फेर कर बोला- छोड़ना मत बेटा साले कंजूस को । लेकिन मुझे नहीं लगता है कि यह कमीना कोई मदद करेगा बड़ा कंजूस है साला । कहते कहते बूढ़ा जोर जोर से खांसने लगा । ठेला मोड़कर जाने लगा तो शामली अपनी साड़ी की खूंट से पचास का नोट देती हुई बोली बाबा इसे रख लो…।

अरे अरे यह क्या करती हो बेटी ! बाबा भी करती हो और पैसे देकर बाबा का अपमान भी करोगी क्या ? तुम्हारी हालत देखकर कौन पत्थर दिल इंसान होगा जिसे दया ना आएगी । और हां सुनो मुझे नहीं लगता कि यह कमीना आदमी तुम्हारी कोई मदद करेगा। ऐसी भयावह रात को इस हाल में कहां जाएगी। बगल में मेरी झोपड़ी है जरूरत पड़े तो आ जाना किसी तरह रात कट जाए तो फिर सुबह चले जाना ।

रामस्वरूप किसी तरह गेट के पास जाकर जोर से आवाज लगाता हुआ बोला – बहादुर भाई , वो बहादुर भाई ! गेट खोलो मैं रामस्वरूप हूं ।

गेट के उस पार से एक हट्टा कट्टा नांटे कद का आदमी झांक कर बोला- कौन रामस्वरूप हो ? इतने खराब मौसम में इधर कैसे आ गए ?

अरे बहादुर भाई पूर्णियां से आ रहा हूं , बीबी बच्चा भी साथ में है पानी में भीज रहा हूं जल्दी से गेट खोलो ।

मैं गेट नहीं खोल सकता रामस्वरूप भाई , साहब अभी नहीं आए हैं उसकी इजाजत के बिना मैं गेट कैसे खोल सकता हूं ।

बूढ़ा ठेला वाला कुछ दूर जाकर फिर लौट आया वहीं ठेला खड़ा करके खैनी चुनाने लगा। शामली भी ठेले के पास खड़ी होकर महल को निहारने लगी । रामस्वरूप से ज्यादा देर तक खड़ा नहीं रहा गया गेट के पास दीवार के सहारे बैठने हीं वाला था कि तभी सफेद रंग की एक कार गेट के पास आकर जोर से होरन बजायी ।

रामस्वरूप लड़खडाता हुआ किसी तरह कार के पास आकर बाबूजी बाबूजी मैं रामस्वरूप बोल हीं रहा था कि तब तक बहादुर ने गेट खोला और कार सरसराती हुई अंदर चली गई । रामस्वरूप को बहादुर ने अंदर जाने नहीं दिया बोला मैं बाबू जी को पूछ कर आता हूं तब तक तुम यहीं रुको । थोड़ी देर बाद बहादुर गेट के पास आकर बोला भाई रामस्वरूप मैं तो पहले से जानता था आपको यहां कुछ नहीं मिलेगा ।

मालिक ने साफ-साफ कह दिया मुझे जितना करना था कर दिया अब कुछ नहीं कर पाऊंगा । उसने अंदर आने देने से मना कर दिया है।

रामस्वरूप की आंखों में आंसू भर आए भर्राईआवाज में गिड़गिड़ाता हुआ बोला- एक बार मिला नहीं सकते हो क्या ?

बहादुर हाथ जोड़कर बोला- माफ करना भाई ! नौकर हूं मेरी क्या औकात…।

रामस्वरूप की आंखों से टप टप आंसू गिरने लगे । जिस महल को बनाते समय वर्मा जी हजारों बार बोले होंगे कि रामस्वरूप भाई अपना हीं घर समझो कोई कोर कसर मत छोड़ना इसे बनाने में वही वर्मा आज अंदर जाने तक नहीं दिया । वह जोर जोर से रोने लगा तभी बूढ़ा ठेला वाला पास आकर उसका हाथ पकड़ कर बोला – चलो बेटा ! यहां रुकने से कोई फायदा नहीं, यह राक्षस निर्दयी लोग हम जैसे गरीबों पर तरस नहीं खाते ।

जिस घर को बनाते समय तुम अपना समझ रहा था वह तो रेत का घर है ।

रामस्वरूप जाते-जाते पलट कर देखा । तभी बिजली चमक उठी, बिजली की रोशनी में चमचमाता हुआ महल साफ-साफ दिखाई देने लगा, वह बुदबुदाया -हां यह रेत का घर है, सचमुच रेत का घर ……..।

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रचनाकार

Author

  • अरुण आनंद

    कुर्साकांटा, अररिया, बिहार. Copyright@अरुण आनंद/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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