मैं अक्सर खुद से लड़नें लगता हूँ,
टूटता हूँ,
फिर अचानक से रोने लगता हूँ l
बंद आँखों की पलकों के नीचे,
दिल के सभी चारों चैंबरों के पीछे,
आँसुओं की जज़्बाती स्याही से लिखा,
थोड़ा धूमिल, थोड़ा अपाठ्य,
लगा, समय का चश्मा,
फिर स्वयं को पढ़ने लगता हूँ
मैं अक्सर खुद से लड़नें लगता हूँ ll
मैं, मैं से उलझ पड़ता है,
जानता हूँ,
मैं, कब मैं का पता रखता है !
फिर भी ढूंढता हूँ,
मन के घने तम के अंदर,
ले फटे पुराने लंगड़ाते
ज्ञान के आलोक को साथ लेकर l
फिर कुछ देर में,
मैं, मैं से झगड़ने लगता हूँ l
मैं अक्सर खुद से लड़नें लगता हूँ ll
मैं अक्सर खुद से लड़नें लगता हूँ ll
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