महाब्राह्मण में लेखक की भारी चूक

त्रिलोक नाथ पांडेय की सद्य: प्रकाशित कृति ‘महाब्राह्मण’ एक सामाजिक दस्तावेज है। यहाँ उपन्यास विधा में कथानक की शिल्पकारी की गई है। लेखक द्वारा उपन्यास में अदृष्ट सूक्ष्मता को मुखरित करने की पूरी प्रक्रिया अतीव रोचक है। लेखक का लम्बा अनुभव और गहन अध्ययन यत्र-तत्र स्पष्ट है। इतिहास को सुलझाकर नया कलेवर देने में त्रिलोक नाथ पांडेय जी सिद्धहस्त हैं, यही इनकी पूर्वप्रकाशित कृतियों की अन्तर्वस्तु भी है। लेकिन इस कृति में वर्तमान अनावृत है। इसमें एक नए विमर्श का सूत्रपात हुआ है। महाब्राह्मण उपन्यास में सामाजिक विसंगति उभरी है। मृत्यु सत्य है इस सत्य की परवर्ती यात्रा में उद्धारक की भूमिका निभाने वाले महाब्राह्मण कर्मकाण्ड में मान्य हैं लेकिन समाज में यही मान्य गर्हित हैं। इन्हें अपशकुन माना जाता है। यह उपन्यास अवसर-विशेष पर पूजनीय परश्च हेय, उपेक्षित, त्याज्य तबके की गाथा है।

उपन्यास संरचनात्मक प्रकृति में एक नोटबुक है। जिसे स्मृतियों की दैनन्दिनी समझ सकते हैं। अवसादग्रस्त अधिकारी मनोचिकित्सक के सुझाव पर मन में चल रहे चलचित्र को शब्दांकित करता है। यही आत्मकथा उपन्यास का कलेवर है। उपन्यास के आरम्भ में लोकार्पित नोटबुक कथानक की ऊपरी जिल्द है और उपन्यास के अंत में चटखारेदार अखबारी खबर जिल्द का पिछला हिस्सा है। कृति का आरम्भ मृत्यु के ठीक पहले की आत्मावस्थिति है और अंत मीडिया पर आश्रित सामाजिक ज्ञान है। इसके मध्य जीवन की जूझ है।

उपन्यास की मुख्य कथा सर्दियों की ठिठुरन से आरम्भ होती है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय  के आर्ट फैकल्टी में स्नातक के अंतिम वर्ष की कक्षा का दृश्य  है। यहाँ एक विद्यार्थी शीत-रक्षक कपड़ों से वंचित है वही छात्र परीक्षा-परिणाम आने पर टाॅप करता है। व्यक्तित्व का यही दोहरा सत्य सम्मान और तिरस्कार का मूल है। टाॅपर विद्यार्थी की सजातीयता का व्यापक भावी लाभ सोचकर प्रोफेसर शुक्ला उसे अपने घर में आश्रय देते हैं। प्रोफेसर शुक्ला के घर पंचवटी की रूपरेखा खींचने में उपन्यासकार की लेखनी पूर्ण सफल है। प्राकृतिक सुव्यवस्था में आध्यात्मिक स्थल की शिल्पकारी लेखक के वास्तुविद्या सम्बंधी कुशल समझ को स्पष्ट करती है। पृष्ठ अट्ठारह पर वास्तुविद्या के दो शास्त्रीय ग्रंथों का नामोल्लेख कृति को कीमती बना देते हैं। ये ग्रंथ हैं- राजा भोज कृत ‘समरांगण सूत्रधार’ और भुवनदेवाचार्य कृत ‘अपराजितपृच्छा’। प्रोफेसर शुक्ला की बेटी अंजलि और उपन्यास के नायक त्रिभुवन  की निकटता आयु-जनित सहज उछाह है। जिसमें मन का वेग और शरीर का संवेग प्रभावी है। अंजलि स्वयं को श्रेष्ठ और निर्दुष्ट रखने के लिए इसे प्रेम कहती-समझती है। बीए की बालिका हार्मोनल हलचल में आगे बढ़ती है, इसमें जयदेव कृत गीतगोविन्द उद्दीपन की भूमिका में है। पहले गीतगोविंद के हिंदी अनुवाद से विषय प्रवेश फिर चित्रात्मक गीतगोविंद से गहनता, फिर एक शाम गीतगोविंद के पदों पर नृत्य देखकर अंजलि त्रिभुवन को अपना कृष्ण मान लेती है और उसी रात वह त्रिभुवन के कमरे में आ जाती है।  राधा-कृष्ण के दैवीय आश्रय में सामाजिक-नैतिक बोध बिला जाता है। बाद में एक जरतुहा बाबूनंदन यादव प्रोफेसर शुक्ला के समक्ष त्रिभुवन के महाब्राह्मण होने की सच्चाई को उजागर करता है और यहीं अंजलि का कथित प्रेम किंकर्तव्यविमूढ़  हो जाता है। अंजलि त्रिभुवन को रेस्टोरेंट ले जाकर लंच कराती है, उसके जेब में सौ रुपए रखती है। यही उसके सामर्थ्य की पराकाष्ठा है। अंजलि विषयक सहज प्रवाह में स्वभावोक्ति का सौंदर्य है। प्रोफेसर शुक्ला की उदारता-सदाशयता सब वैपरीत्य साध लेती है। सुख विद्युत सा कौंधकर पुनः दुर्दिन  में धकेल देता है। परश्च पल्लेदारी करने वाले जवार के घुरहू भैया का यथासामर्थ्य सहयोग तमाम विसंगतियों में मजबूत स्तम्भ है। सीताराम मठ में किराए पर घुरहू भैया के साथ रहने वाले त्रिभुवन का मठ के इतिहास से लेकर वर्तमान तक का आमूलचूल ज्ञान हो जाना उपन्यासकार के सामाजिक समझ की गहनता है। आदर्शवाद,  नैतिकता की पैरवी करने वाले समाज के भीतर बजबजाती तराऊपर-अव्यवस्था को उपन्यासकार आरपार देखते हैं और सही-गलत के फेरे में न पड़कर बस दृश्य दिखाते हुए बढ़ते जाते हैं।

उपन्यास के नायक त्रिभुवन नारायण मिश्रा की स्कूली-शिक्षा के दौरान अन्य विद्यार्थियों द्वारा चिढ़ाया जाना ओम प्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा जूठन के संघर्ष को उभारता है। स्कूल में त्रिभुवन को अन्य विद्यार्थी कंटहा कहकर चिढ़ाते हैं और ओम प्रकाश बाल्मीकि को चुहड़ा कहकर। यहाँ बाल्मीकि और महाब्राह्मण की शैक्षिक स्तर पर सामाजिक स्थिति समान है। एमए प्रथम वर्ष में त्रिभुवन जब प्रोफेसर शुक्ला के घर में रहते हैं और अंजलि अपने पिता की अप्रत्यक्ष अनुमति में स्वयं को भरपूर जी लेती है और बाद में भीतर दुबक लेती है। यह घटना भी जूठन उपन्यास की एक घटना से साम्य रखता है, जिसमें लड़की मराठी ब्राह्मण है। कह सकते हैं कि महादलित और महाब्राह्मण की सामाजिक सहभागिता में एक ही स्थिती है। स्कूली शिक्षा के दौरान कथा-नायक अनपढ़ गाँव वालों की चिट्ठियां लिखता और बाँचता है। एक नवविवाहिता अपनी सास के सामने चिट्ठी में मन की पीड़ा लिखवाने में खुद को असहज महसूस करती है इसलिए वह सास की अनुपस्थिति में ही नायक को बुलाती है। उसका पति सालों से सालों के लिए  खाड़ी देश में है। सास रुपयों की आवक के मान में फूली रहती है। इस आवरण की भीतरी थाती में अन्तस् का करुण क्रंदन है। निर्जन आंगन में चिट्ठी लिखवाते हुए नवविवाहिता पास ही रति-क्रिया में निमग्न गौरैया के जोड़े पर एकाग्र हो जाती है। बाद में नायक और उसके बीच जो भी होता है वह अन्तस् की करुणा का प्रस्फुटन है उच्छृंखलता नहीं। यह एक सामाजिक समस्या है, रोजगार के लिए पलायन दाम्पत्य जीवन के लिए आपदा है। परदेस की कमाई से सामाजिक रुतबा तो बनता और बढ़ता है लेकिन विरह में अंदर ही अंदर बिसुरता  मन अतीव पीड़ादायी हो जाता है। कथा नायक त्रिभुवन नारायण मिश्रा बड़ी सहजता से अपनी माई और कक्का के सम्बंधों का विवरण डायरी में दर्ज करते हैं। माई गर्भावस्था में ही विधवा हुई थीं और कक्का का कुरूपता के कारण विवाह नहीं हो सका था। कक्का रिश्ते में माई के सगे जेठ/भसुर हैं। माई भयव हैं, भयव के लिए जेठ की परछाईं का स्पर्श न शास्त्र सम्मत है न ही लोकसम्मत। ऐसे में लेखक ने इस सम्बंध को घर के भीतर पूर्ण सहजता दे दी है। यहीं नवीन आचार संहिता का सूत्रपात हो जाता है। एक युवा विधवा और एक अविवाहित पुरुष  के निष्ठापूर्वक निभाए जाने वाले सम्बंध को लोक और शास्त्र, समाज और परिवार सबकी स्वीकृति मिलनी चाहिए। इससे शरीर और  मन के उम्र और अभावजनित भटकाव पर विराम लग जाता है।

यह उपन्यास चूँकि सोने से पहले की डायरी है, इसलिए  इसमें जीवन की रैखिक गति मुख्य है। बीच-बीच में स्मृतियां अतीत की पड़ताल करती हैं और कथानक में गझिन गहनता आ जाती है। शुक्ला सर के घर से निर्वासन के बाद परीक्षा में कम अंक आना और फिर नायक का अज्ञात दिशा में बढ़ना, फिर इलाहाबाद का पड़ाव और सिविल सेवा में तीसरा रैंक  लाना, दुत्कारे हुए के सामर्थ्य की असलियत उजागर करते हैं। इस पड़ाव पर राकेश सर की आत्मीयता अद्भुत है जो सिविल सेवा परीक्षा का परिणाम आने पर त्रिभुवन के घर पहुँच जाते हैं। लेकिन उनकी रैंकिंग पीछे होने के कारण ट्रेनिंग के बाद ही यह मैत्री विलग हो जाती है। ट्रेनिंग की प्रक्रिया  का क्रमश: विवरण तैयारी से सम्बद्ध असफल अभ्यर्थियों के लिए तृप्ति प्रदायी है। त्रिभुवन के चयन के बाद, ओहदे वाले ससुर का रिश्ता और मृणालिनी जैसी हाई-फाई पत्नी, विवादित धर्म-स्थल पर पोस्टिंग,  ये सब मिलकर एक होनहार  को खोखला कर देते हैं और वह अपनी इहलीला ही समाप्त कर लेता है। यहाँ अभाव की सम्भावना में उत्कर्ष है और उपलब्धियों के खतरे जानलेवा हैं। स्मृतियों में समाजशास्त्र है। महाब्राह्मणों की जजमानी वितरण व्यवस्था की झलक भी है साथ किसी की जजमानी किसी और द्वारा बिता लेने का छल भी रोचक सामाजिक गुम्फन है। त्रिभुवन का जजमानी में जाना स्वयं की स्वीकारोक्ति है जबकि अधिकारी बनकर वही त्रिभुवन जीवन को ही नकार देता है। मिली हुई  सामग्री को समीपस्थ  बाजार में बेचना फिर उसी सामग्री का वापस किसी अन्य की मृत्यु में बिक जाना विश्वास को ढोंग सिद्ध करते हैं। कक्का का दारू पीकर रोना आदि इग्नोर किए जाने वाले सच से सामना करवाते हैं। मृत्युंजय की प्रेतमुक्ति प्रक्रिया में कक्का का भी रुदन वेदना का ऐक्य दर्शाता है। पंडित मिसिर की माँ के दशगात्र में कन्हई की अत्यधिक मांग और अंत में बिना कुछ लिए  लौटना मानसिक पीड़ा और क्षोभ दर्शाता है। मरी-माता की आस्था में इच्छाशक्ति मूर्त हो जाती है। मरी माई किसी महाब्राह्मण पुरखे की चमाइन प्रेमिका हैं। मरी माता की कहानी अत्यधिक रोचक स्थानीय इतिहास है। उपेक्षित महाब्राह्मणों की एकता में सुभाष चुनाव हार जाते हैं। सोमारी, मंगरी आदि स्त्रियों की जीवनयात्रा में रुतबेदारों का यथार्थ समाया है। तमाम ऐसे प्रसंग हैं जो मन की कथरी पर सीवन बने गुंथे हैं, ऐसे में दुर्दांत वर्तमान है, जिसमें प्राणरक्षा की सम्भावना ही अवशिष्ट नहीं है। उपन्यास में नायक की जीवन-यात्रा में अनुभवों की गठरी है। संघर्ष की परतें बनती और उघरतीं हैं। इसी व्यूह साँस घुमती है और नींद की गोलियां स्थायी विश्राम प्रदायिनी बन जाती हैं।

यह उपन्यास यथार्थ पर आधारित और सामाजिक मनोवृत्ति पर केंद्रित घटनाओं का ब्यौरा है। साहित्य जगत की इस निधि से पाठक अदृष्ट का साक्षात्कार कर सकेगा। इस जटिलतम व्यूह के समाधान पर सजग पाठक विचार-गोष्ठी आयोजित करेगा। इस स्तर पर साहित्य का उद्देश्य “हितं बुद्धिविवर्धनम्” फलीभूत हो सकता है। यह कृति हाशिए से लुढ़कते वर्ग का कच्चा चिट्ठा है। मुख्य धारा की दृष्टि के समक्ष अज्ञात अनावृत हो जाता है। महानता का आवरण उघरते ही जो टीसता यथार्थ है वह एक संघर्षशील होनहार के लिए  जानलेवा बन जाता है। बाहरी-भीतरी कई परतें समाजव्यवस्था के गहरे मनोविज्ञान को सहज ही सतह पर ले आती हैं। भाषिक सौंदर्य  की दृष्टि से सामाजिक इकाई और प्रसंग के अनुरूप शब्द-चयन ‘शिष्टता का सीमित दायरा-पसंद’ पाठकों को अश्लील लग सकता है।

त्रिभुवन नारायण मिश्र अवसाद में स्मृतियों को अंकित करते हैं। अधिकारी होने का रौब उन्हें सम्भाल नहीं पाता। नौकर-अर्दली-ड्राइवर आदि मित्र नहीं होते। ऊपर के अधिकारी व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपते हैं, लेकिन निर्दोषता पर भरोसा नहीं करते। बेरोजगारी-गरीबी में जिंदगी बची रहती है, लेकिन नौकरशाही बहुत ही अकेला कर देती है। ट्रेनिंग में हार का सामना करना शायद नहीं सिखाया जाता। त्रिभुवन प्रेम से पत्नी का हृदय-परिवर्तन करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं बदले में झूठा इल्जाम मिलता है।

त्रिभुवन के विवाह की बात जब होती है, तब मृणालिनी के पिता कन्विंस करते हैं कि बिन माँ की बच्ची है थोड़ी मनमानी करती है विवाह के बाद जिम्मेदारियां  आएंगी तो ठीक हो जाइएगी। त्रिभुवन को इस बात में दम लगता है। लेकिन  विवाह के बाद भी मृणालिनी देर रात ड्रिंक करके द्विज  के साथ आती है। हनीमून कैंसिल कर देती है। पति के साथ फैजाबाद जाने की बात टाल देती है। मैरिज होने के टैग के साथ पूर्ववत जीवन जी रही होती है। तब त्रिभुवन इस संदर्भ में अपने ससुर से बात करने की कोशिश करता है तो वे किनारा कर लेते हैं। कह देते हैं कि यह तुम दोनों के बीच का मामला है। खुद ही सुलझाओ।  बाद में त्रिभुवन  मृणालिनी के प्रेमी द्विज की बहन विद्या को वेश्यावृत्ति से बाहर निकालकर अपने घर में आश्रय देता है। एक ही गाँव के होने के कारण दोनों भाई-बहन हैं। लेकिन अचानक मृणालिनी आकर तमाशा करती है और इसे अवैध संबंध कह देती है जिससे आहत होकर विद्या आत्महत्या कर लेती है। इस परिस्थिति में त्रिभुवन के ससुर मतलब मृणालिनी के पिता प्रशासन से उचित कार्रवाई  की बात कहते हैं। मृणालिनी के पिता दीक्षित जी आईपीएस अधिकारी हैं। उनके व्यवहार का क्रम मनोविज्ञान के लिए शोध का विषय है। स्वस्थ समाज के लिए इस शोध में ऐसे व्यवहार को बीमारी की तरह ट्रीट करना चाहिए। इसे पढ़कर पाठक स्वयं जीवन-रक्षा की दिशा तय कर सकते हैं।

कुछ ग्रामीण विवरण मैला आँचल से बढ़कर आंचलिकता का दिग्दर्शन कराते हैं। गाँव की नाट्यमण्डली में एक चरित्र लवंडा का है। लवंडा पर रीझते पुरुषों की कहानियां एक दुनिया में एकदम अलग-अज्ञात दुनिया की तरह दीखती हैं। एक तनावग्रस्त अधिकारी की डायरी में मन की परतें वैविध्यपूर्ण संसार समेटे हैं। स्मृतियां कहीं भी किञ्चित भी उलझती नहीं हैं। संघर्षशील अतीत में सीरम-सा सुलझाव है। लेकिन  वर्तमान नौकरशाही वाला दायित्व, पारिवारिक कुव्यवस्था, अविश्वास, आरोप के व्यूह में उलझे अकेलेपन में साँसें खिंचकर टूट जाती हैं। एक अधिकारी मूलतः मनुष्य है उसे व्यवस्था के फंदे से बचाना हर किसी का मानवीय दायित्व है।

पृष्ठ सोलह ऊपर से दूसरी पंक्ति में वर्तनी अशुद्ध है। “सूना” शब्द में ह्रस्व उकार होगा और वाक्य की अपेक्षा के अनुरूप  “सुना” सही शब्द है। यद्यपि यह साहित्य समाज का दर्पण तो है, लेकिन यह समाज को दिशा नहीं दे सकता। प्रश्न यह उठता है कि एक त्रासदी के विवरण मात्र को क्या साहित्य की श्रेणी में परिगणित करना चाहिए। कहा गया है “कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:”।  ब्रह्मा की सृष्टि से श्रेष्ठ रचनाकार की सृष्टि होती है। ऐसी कालजयी परिभाषाओं के स्तर पर यह उपन्यास असफल लगता है। अभाव और उपेक्षा में गढ़ा गया अफसर समृद्ध-कुलीन  समाज में अद्भुत विमर्श बन सकता है लेकिन विमर्श की इमारत आत्महत्या पर पहुँचकर भरभरा गई है। नींद की समस्या से जूझते अवसादग्रस्त अधिकारी को मनोचिकित्सक के पास न भेजकर मेडिटेशन की ओर मोड़ा जा सकता है। भले विद्या ने आत्महत्या कर ली थी, लेकिन उसकी कुण्डली तो गाँव-जवार बांच ही देता। थोड़ा समय अवश्य लगता। महाब्राह्मणों का ऐक्य द्विज के मामा सुभाष को चुनाव हरवा सकता है तो इस त्रासदी को पार पाने का रास्ता अपनों के बीच अवश्य निकल सकता है। कटे सम्पर्क-सूत्र जोड़े जा सकते हैं। मृणालिनी की कुण्डली तो उसके स्कूल-कालेज से लेकर दीक्षित के नौकर-चाकर से खुलवाया जा सकता था। रिटायर्ड दीक्षित की ढेर देर तक चलती भी नहीं। उनके अनेक छलछद्म अतीत से ही अनलाॅक होकर बाहर आ जाते। त्रिभुवन का निलम्बन परिस्थितिजन्य है इसमें पराजित होने का भाव नहीं होना चाहिए।  बस बढ़ियां वकील करके चार-छह महीने त्रासदी झेलने भर की आवश्यकता है। मीडिया अपने ही चटखारेदार खबर से पलटकर अद्भुत पैंतरा बदलकर और भी मोटे अक्षर में छाप सकती है कि एएसपी त्रिभुवन नारायण मिश्र निर्दोष साबित हुए, उनकी पत्नी ने ही की थी उनके खिलाफ  साजिश आदि आदि  बचपन से जलालत और तंगी झेलना जैसे सहज है। वैसे ही ओहदेदार होने पर  इस स्तर के छीछालेदर का सामना करने की योग्यता उपजानी होगी क्योंकि जीवन अनमोल है।

पुस्तक का नाम- महाब्राह्मण

विधा- उपन्यास

पृष्ठ- 213

मूल्य- 299/-

प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन

प्रकाशन वर्ष- प्रथम संस्करण: 2023

प्रस्तुति

डाॅ कल्पना दीक्षित

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1 Comment

  • युगल किशोर सिंह January 23, 2025

    बहुत सुन्दर समीक्षा – पूरी कहानी को समग्रता में लपेटे हुए।
    उपन्यास के मुख्य नायक त्रिभुवन का तत्कालीन परिस्थितियों में आत्महत्या करना बहुत-से पाठकों को खटक रहा है।यह पूरे उपन्यास के प्रभाव को हिलाकर कमजोर कर देता है। लेखक के यथार्थवादी दृष्टिकोण से काव्यात्मक न्याय की उपेक्षा होती दिख रही है।

    समीक्षा की अंतिम चार पंक्तियों पर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। *आदि आदि* के बाद पूर्ण विराम और *वैसे* के पहले पूर्ण विराम की जगह अर्द्ध विराम ज्यादा ठीक होता।

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रचनाकार

Author

  • डॉ. कल्पना दीक्षित

    जन्मतिथि- 22/04/1983शैक्षिक योग्यता-एम. ए. 2006, (संस्कृत, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली),एम.ए. 2011, (इतिहास, इंदिरागांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली),एम.ए. 2021, (हिंदी, इंदिरागांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली),एम.फिल. 2008, पीएच.डी. 2014 (हिंदी अनुवाद, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली),लघुशोध-प्रबंध शीर्षक- “शाकुन्तलम् के हिंदी अनुवादों का तुलनात्मक अध्ययन”,शोध-प्रबंध शीर्षक- “रासपंचाध्यायी के हिंदी अनुवादों का विश्लेषणात्मक अध्ययन”,यूजीसी नेट-जेआरएफ दिसम्बर 2007,विविध शोध और साहित्यिक पत्रिकाओं में शोधपत्र/आलेख आदि प्रकाशित। आकाशवाणी में कार्यक्रम प्रसारित। शैक्षिक संगोष्ठियों में व्याख्यान।सम्पर्क-डी-ब्लाॅक, डी-1, प्रोफेसर्स क्वार्टर,जादवपुर विश्वविद्यालय,कोलकाता-700032, पश्चिम बंगाल.

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