बिहार अतीत और वर्तमान के आइने में

बिहार के लिए एक कहावत बेहद प्रचलित है- “एक बिहारी सौ पे भारी।” बौद्धिकता यहां के कण-कण में विद्यमान था। लेकिन अफसोस ऋषियों, मुनियों एवं महापुरुषों की यह पावन धरती अभी तक अपने विकास और तरक्की के लिए तरस रही है। भगवान बुद्ध की कर्मभूमि और महावीर स्वामी की जन्मभूमि रही बिहार में ही सबसे पहले गणराज्य के बीज बोए गए, जो बाद में आधुनिक लोकतंत्र के फल के रूप में पका। अगर भारत के सभी राज्यों की तुलना करें तो बिहार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और गौरवगाथा शायद सबसे समृद्ध है। भले ही बिहार का वर्तमान परिदृश्य ओछी और भ्रष्ट राजनीति से धूमिल हो चुका है लेकिन इसके इतिहास पर हर बिहारी को गर्व होना चाहिए। बौद्धिकता यहां कण-कण में विद्यमान था। यह एक महान देश भारतवर्ष का हृदय था। यह शक्तिशाली राजाओं के प्रायोजन के तहत हजारों वर्षों से एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में स्थापित किया गया था। बिहार दुनिया के सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है और इसका जल निकास गंगा नदी से होता है। कपास, कपड़ा, शोरा और नील सभी प्रसिद्ध थे। प्राचीन से लेकर मध्यकालीन भारत तक यह एक महत्वपूर्ण वाणिज्य केंद्र था। यह यूरोपीय लोगों को व्यापार कारखाने और केंद्र स्थापित करने के लिए एक आकर्षक तर्क प्रदान करता है। वर्तमान बिहार पूर्वी भारत में स्थित है। जिसकी सीमा उत्तर में नेपाल और पूर्व और पश्चिम में क्रमशः पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के भारतीय राज्यों से लगती है। 2001 ई. में झारखंड राज्य बिहार से ही अलग होकर बना।राजर्षि जनक, जानकी, वाल्मीकि, महर्षि विश्वामित्र, बुद्ध, महावीर, सम्राट चंद्रगुप्त, चाणक्य, सम्राट अशोक, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, बाणभट्ट, विद्यापति, मंडल मिश्र, उभय भारती, राजेंद्र प्रसाद, श्रीकृष्ण सिंह, जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ इत्यादि अनेक विभूतियों की पहचान रही यह बिहार की गौरवशाली व वैभवशाली प्रादेशिक भूमि अपने समृद्ध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक परिचय की मोहताज नहीं। प्राचीन भारत का गौरवशाली इतिहास प्राचीन बिहार के इतिहास के बिना आधा-अधूरा है। प्राचीन काल में मगध-बिहार का इतिहास पूरे भारत वर्ष का इतिहास रहा। भारत की पहली राजधानी पाटलिपुत्र (मगध) ही थी। यहां पर हर्यक वंश, शिशुनाग वंश, नंद वंश, मौर्य वंश, शुंग वंश, गुप्त वंश आदि शक्तिशाली राजवंश स्थापित हुए। जिसमें विश्व में स्थापित महानतम समृद्ध साम्राज्यों में दो साम्राज्य~मौर्य व गुप्त साम्राज्य के शासन संचालन की प्रत्यक्ष साक्ष्य भूमि रही बिहार की रही। ‘पाटलिपुत्र'(वर्तमान पटना) धरा स्वयं में एक स्वर्णिम गौरवशाली इतिहास को समेटे हुए है। यहीं पाटलिपुत्र की धरती है जहां कभी आचार्यवर चाणक्य ने पूरे भारत को राजनीतिक दृष्टि से एकसूत्र में बांधने हेतु अखंड भारत का सपना देखा था और जिनके परम प्रतापी योग्य शिष्य सम्राट चंद्रगुप्त ने बखूबी उनके सपने को साकार किया था। इतिहास का साक्ष्य गवाह है कि पाटलिपुत्र की धरा से ही मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत भारत का गौरवशाली राजनीतिक सीमा विस्तार पश्चिमोत्तर में ईरान-अफगानिस्तान से लेकर पूरब में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कर्नाटक के सुदूर क्षेत्रों तक स्थापित रहा। बिहार वह पावन भूमि रही है जहां गौतम बुद्ध(बौद्ध धर्म) व महावीर(जैन धर्म) को ज्ञान प्राप्त हुआ और यहीं से पूरे विश्व जन तक प्रेम व करुणा का महासंदेश पहुंचा। वैदिक(हिन्दू) धर्म का पुनरुत्थान मगध सम्राट पुष्यमित्र द्वारा यहीं से आरंभ हुआ। आगे गुप्तकाल में वैदिक धर्म राजकीय धर्म के रूप में स्वीकृत हुआ। प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा के तीन विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों में दो विश्वविद्यालय- नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार की समृद्ध शैक्षिक विरासत की प्रत्यक्ष गवाह रही हैं। बिहार में स्थित नालंदा भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना 5 वीं शताब्दी ईस्वी में गुप्त वंश के कुमारगुप्त के शासनकाल के दौरान हुई थी। हर्ष के शासनकाल के दौरान आए चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग ने नालंदा विश्वविद्यालय का विस्तार से वर्णन किया। नालन्दा एक विशाल मठ-शैक्षिक प्रतिष्ठान था। महायान बौद्ध धर्म , फिर भी अन्य ‘धर्मनिरपेक्ष’ विषयों को भी शामिल करता है- जैसे, व्याकरण, तर्कशास्त्र, ज्ञानमीमांसा और विज्ञान। कहा जाता है कि हर्ष ने नालंदा के एक हजार विद्वान भिक्षुओं को कनौज में दार्शनिक सभा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। यह 800 वर्षों की निर्बाध अवधि में ज्ञान के संगठित प्रसारण में लगा रहा। इस स्थल का ऐतिहासिक विकास बौद्ध धर्म के एक धर्म के रूप में विकसित होने और मठवासी और शैक्षणिक परंपराओं के फलने-फूलने का प्रमाण देता है। अपने चरम पर, इसने निकट और दूर-दूर से विद्वानों और छात्रों को आकर्षित किया था, जिनमें से कुछ ने तिब्बत, चीन, कोरिया और मध्य एशिया से यात्रा की थी। यूनेस्को ने इस स्थल-नालंदा महाविहार के खंडहर- को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है।यह वर्तमान बिहार के भागलपुर जिले में है।पाल वंश के शासक धर्मपाल (783-820 ई.) ने नालंदा में अध्ययन के स्तर में कथित कमी के जवाब में विक्रमशिला की स्थापना की।धर्मपाल गोपाल के पुत्र थे, जिन्होंने ओदंतपुरी विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। विश्वविद्यालय में प्रोफेसरों को भारत के बाहर के राज्यों द्वारा बौद्ध शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए कहा गया था।विक्रमशिला को ज्यादातर तिब्बती स्रोतों से जाना जाता है , खासकर 16वीं-17वीं सदी के तिब्बती भिक्षु इतिहासकार तारानाथ के कार्यों से। यह वज्रयान बौद्ध धर्म का केंद्र था और इसमें तांत्रिक उपदेशक कार्यरत थे। तर्कशास्त्र, वेद, खगोल विज्ञान, शहरी विकास, कानून, व्याकरण, दर्शन और अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी। विक्रमशिला विश्वविद्यालय ने पूरे देश के साथ-साथ अन्य देशों से भी छात्रों को आकर्षित किया। कुलपति या महास्थविर, जो आम तौर पर चुना जाता था, विश्वविद्यालय का सर्वोच्च अधिकारी होता था।शिक्षा के इन दोनों सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों को वर्ष 1193 के दौरान, तुर्की नेता बख्तियार खिलजी, सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनापति ने जलाकर नष्ट कर दिया। भारत में मुस्लिम शासनकाल के अंतर्गत मध्यकाल में आकर बिहार का समृद्ध गौरवशाली ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक व शैक्षिक पहचान धूमिल होना प्रारंभ हुआ। बिहार के लिए यहीं वो घोर अंधकार काल था जब बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय को ध्वस्त किया गया और इसकी विश्व प्रसिद्ध पुस्तकालय को आग लगा दिया गया। आधुनिक काल में अंग्रेजी शासनकाल में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ बेहतर कदम उठाए गए। जिसके परिणामस्वरूप बिहार में पटना कॉलेज, पटना साइंस कॉलेज, बिहार कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग(वर्तमान एनआईटी पटना), पटना मेडिकल कॉलेज, पटना लॉ कॉलेज,पटना विश्वविद्यालय इत्यादि अनेकों शिक्षण संस्थान खोले गए। मगर इसके पीछे भी अंग्रेजों का अपना राजनीतिक-प्रशासनिक लाभ छिपा था। क्योंकि इन शिक्षण संस्थानों से अंग्रेजी शिक्षा पाकर निकले भारतीय युवा अंग्रेजों की राजनीतिक प्रशासनिक कार्यों में सहायक (एसडीएम, डीएसपी, सहायक अभियंता इत्यादि) की बखूबी भूमिका निभाते थे। अंग्रेजी शासनकाल में बिहार में गरीबी, भुखमरी, सूखा, बाढ़, कृषि इत्यादि समस्याओं के निदान हेतु कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया। अंततः अंग्रेजी शासनकाल भी बिहार के लिए एक महामारी ही साबित हुआ। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्र भारत में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह जी ने पदभार ग्रहण किया और अपने मात्र 15 वर्षों के कार्यकाल(1946 से 1961तक) में बिहार के विकास को पूरे राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान दिलाई। संयुक्त बिहार(बिहार और झारखंड) उनके कार्यकाल में भारत की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला प्रदेश बना। उनके कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री नेहरू जी द्वारा भारत के सभी प्रदेशों के विकास कार्यों की समीक्षा हेतु प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री- Paul H. Appleby के नेतृत्व में भेजी गई समिति ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन बिहार को देश का एक बेहतर शासित प्रदेश माना था और बिहार के विकास कार्यों को अन्य भारतीय प्रदेशों के लिए एक बेहतर विकास मॉडल के रूप में बताया था। उद्योग के रूप में देश की पहली रिफाइनरी बरौनी आयल रिफाइनरी, बरौनी व सिंदरी रासायनिक खाद कारखाना, एशिया का सबसे बड़ा इंजीनियरिंग कारखाना भारी उद्योग निगम हटिया व देश का सबसे बड़ा स्टील प्लांट बोकारो, शैक्षणिक संस्थान के रूप में पूसा व सबौर कृषि कॉलेज, रांची विश्वविद्यालय, भागलपुर विश्वविद्यालय व बिहार विश्वविद्यालय की स्थापना, लोक सांस्कृतिक संस्था के रूप में बिहार लोक रंगशाला, भारतीय नृत्य कला मंदिर(पटना) व रवीन्द्र परिषद(पटना) की स्थापना इत्यादि अनेकों महत्वपूर्ण कार्य श्रीकृष्ण सिंह जी के कार्यकाल में ही संपन्न हुआ। आगे मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर जी के शासनकाल (1979) तक बिहार की स्थिति संतोषजनक बनी रहीं। जब 1970 के दशक में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी शासन के खिलाफ जनविरोध शुरू हुआ तो बिहार से जयप्रकाश नारायण ने देशव्यापी संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया। मगर बिहार का दुर्भाग्य रहा कि इसी संपूर्ण क्रांति की उपज चंद राजनेता जो आगे चलकर बिहार के शीर्ष राजनीतिक(मुख्यमंत्री) पद पर पहुंचे… बिहार को अराजक राजनीतिक तंत्र में तब्दील कर अपराध, भ्रष्टाचार, कुशिक्षा, बेरोजगारी इत्यादि मामलों में बिहार को शीर्ष स्तर पर पहुंचाकर बिहार की छवि को राष्ट्रीय स्तर पर धूल धूसरित कर दिया। परिणामस्वरूप बेहतर जीवन की तलाश में बिहार से पलायन प्रारंभ हुआ जो आज भी यथावत जारी है। आज भी बिहार के प्रायः विद्यार्थी उच्च शिक्षा हेतु एक गुणवत्तापरक शिक्षा की तलाश में दूसरे प्रदेश के विश्वविद्यालयों में जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं, आज भी बिहार का युवा एक बेहतर रोजगार की तलाश में औद्योगिक संपन्न दूसरे प्रदेशों में जाकर नौकरी करता है, आज भी बिहार का व्यक्ति बेहतर इलाज के लिए दूसरे प्रदेशों में जाकर इलाज कराता है। आज बिहार के पास राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर का सर्वोत्कृष्ट न कोई विश्वविद्यालय है, न कोई शोध संस्थान है, न कोई कला व साहित्य संस्थान है, न कोई खेल प्रशिक्षण अकादमी व स्टेडियम है इत्यादि। फिर भी हमारे बिहार के बौद्धिक, वैचारिक हीन चंद युवा अपने अपने जातीय राजनेताओं की चाटुकारिता में दिन-रात यशोगान करते फिरते हैं। पटना विश्वविद्यालय, जो आधुनिक बिहार में उच्च शिक्षा का सर्वोच्च शिक्षण संस्थान था, आज राजनीति का शिकार होकर पूर्णतः हाशिए पर चला गया। आज बिहार के सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों अथवा विश्वविद्यालयों की स्थिति राष्ट्रीय स्तर पर दोयम दर्ज की है। न यहां शिक्षकों का पूर्णतः पद भरा है, न यहां कोई उच्चस्तरीय गुणवत्तापरक शिक्षा उपलब्ध है, न यहां कोई समृद्ध सार्वजनिक पुस्तकालय उपलब्ध है.. आज बिहार के सरकारी शैक्षणिक संस्थान सिर्फ और सिर्फ कागज़ी डिग्री बांटने वाले संस्थान बनकर रह गए हैं। ठीक ऐसे ही स्थिति सरकारी अस्पतालों की है। बीते 18 वर्षों (वर्ष 2005 से अबतक) में बिहार में बदलाव सिर्फ इतना हुआ है कि गांव-गांव तक सड़क व बिजली पहुंच गई है मगर शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, कृषि, औद्योगिकरण इत्यादि के लिए कोई मूलभूत बदलाव नहीं हुआ। डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल में बिहार कृषि और कृषि आधारित उद्योगों का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करता था। उस समय बिहार का किसान चीनी मीलों, जूट मीलों, पेपर मीलों, रासायनिक खाद कारखानों, डेयरी उद्योगों के बदौलत नगदी फसल उपजा पाता था। आज बिहार का किसान गन्ना नहीं उपजा सकता। क्योंकि कोई चीनी मील नहीं है। बिहार में भागलपुर के किसान बड़ी मात्रा में आम उपजाते हैं मगर उनके आसपास आम का जूस बनाने की कोई फैक्ट्री नहीं है, हाजीपुर का किसान बहुतायत में केला उपजाते हैं मगर उनके आसपास खाद्य प्रसंस्करण का कोई कारखाना नहीं है। परिणामस्वरूप बाहर से कोई व्यापारी आता है और सस्ते दरों पर किसानों की उपज खरीद ले जाता है। बिहार में किसानों के फसलों की सरकारी खरीद धान एवं गेहूं जैसे खाद्य फसलों तक सीमित है और यहां भी पूर्णतः अव्यवस्था व अराजकता की स्थिति है। यहां भंडारण और कोल्ड स्टोरेज की कोई व्यवस्था नहीं है। परिणामत: मजबूर होकर किसानों को बिचौलियों के हाथों अपनी फसल सरकारी निर्धारित रेट से कम मूल्यों पर बेचनी पड़ती है। आज बिहार के किसान केवल धान व गेहूं उपजाने की बाध्यता वाले एक बंधुआ मजदूर बनकर रह गए हैं। प्रायः उत्तरी बिहार भीषण बाढ़ व दक्षिणी बिहार सूखे की वजह से राष्ट्रीय खबरों में बना रहता है। मगर आजादी के इतने वर्षों बाद भी बिहार सरकार द्वारा अब तक बाढ़ व सूखे की समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकाला गया। उपर्युक्त सभी समस्याओं का मुख्य कारण बिहार सरकार का प्रदेश की जनता के प्रति गैर जिम्मेदाराना रवैया, उदासीनता व दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। अभी हाल ही में बिहार सरकार द्वारा “जाति जनगणना” रिपोर्ट प्रस्तुत किया गया। यह वस्तुतः बिहार के सत्ताधारी दलों द्वारा बिहार की जनता को प्रदेश की मुख्य समस्याओं~ शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, कृषि, उद्योग, रोजगार इत्यादि से ध्यान भटकाकर आगामी चुनावों में राजनीतिक लाभ लेने की एक षड्यंत्रकारी रणनीति है जो निंदनीय व दुर्भाग्यपूर्ण है। यह वस्तुतः बिहार की जनता को पुनः मध्यकालीन दौर की ओर ले जाने का राजनीतिक एजेंडा है जो बिहार के सामाजिक समरसता को धूमिल करने का कुत्सित प्रयास है। बिहार सरकार को प्राचीन बिहार के गौरवशाली इतिहास से सबक लेकर प्रदेश को देश व दुनिया के समक्ष आर्थिक, शैक्षिक, कृषि आधारित औद्योगिकी व प्रौद्योगिकी विकास का एक विश्वस्तरीय मानक प्रस्तुत करना चाहिए।।

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रचनाकार

Author

  • डॉ प्रदीप कुमार सिंह

    असिस्टेंट प्रोफेसर-प्राचीन इतिहास.मऊ-उत्तर प्रदेश. Copyright@डॉ प्रदीप कुमार सिंह/इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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