महान व्यक्तित्व के धनी बड़का पाँड़े को कौन नहीं जानता। पूरे तहसील में उनका नाम लेते ही अनायास ही लोगों के मुख से निकल जाता बड़े विद्वान आदमी हैं। बड़का पाँड़े धारा प्रवाह अंग्रेजी तथा धारा प्रवाह नेपाली एवं संस्कृत बोलते थे। उनकी लायब्रेरी में सन् 1959 मे पौने दो लाख की किताबें थी। जीवन भर केवल एक ही काम था अध्ययन करना। बड़का पाँड़े कभी खेत खलिहान में देखने नहीं गये कि क्या बोया गया क्या काटा गया। न ही उनसे कोई खेती गृहस्थी का काम करने के लिए कहता था। जथा नाम तथा गुणः वाली कहावत सटीक उन्हीं पर बैठती थी।नौकरी के लिए परेशान थे बड़का पाँड़े उसी समय उनकी मुलाकात चंद्रमणि चाचा सैनुवा से हुई जो नेपाल के धुरकोट में पढ़ाते थे। उन्होंने कहा वहां आ जाओ तुम्हारी नौकरी पक्की समझो। यह कहकर वे चले गये।
बड़का पाँड़े के मन में चंद्रमणि चाचा की बात जम गयी। आनन-फानन मे अपना सामान पैक किया और हिमालय हाई स्कूल धुरकोट के लिए रवाना हुए। घर से चोरी चुप्पे बिना बताये चल दिये। किसी को भनक भी नहीं लगा कि बड़का पाँड़े कहाँ गये? माता मरजादी देवी को जब पता चला तो वह बहुत रोयीं पछताईं पर बेचारी औरत की जात कर ही क्या सकती थीं। बेटे की याद में जीवन के अंतिम समय तक तड़पती हुई रह गयीं। इधर बुटवल से पहाड़ की चढ़ाई प्रारम्भ हो गयी। उस समय बड़का पाँड़े का जवानी का आलम था वही थोड़ी-थोड़ी रेख आ रही थी। गेंहुआ वदन एवं मांसल देह था उनका। सारा शरीर थोड़ी देर चढ़ाई करने के बाद पसीना से तर- बतर हो गया फिर भी हिम्मत से चढ़ाई करते गये। मन में अध्यापन कार्य करने का हुलास भी उनके मार्ग को प्रशस्त कर रहा था।
धीरे-धीरे भगवान भास्कर भी अस्ताचल की ओर जा रहे थे। वियाबान जंगल सूखे पत्ते भी पैर के नीचे पड़ते तो चर-चर की आवाज करके टूट जाते। कहीं पर सियार इत्यादि के दौड़ने से खर्र की आवाज होती तो सारा हृदय सूख जाता। कहीं भी घुप अंधकार के कारण कुछ दिखाई नहीं पड़ता। थोड़ी दूर पर कुछ प्रकाश दिखाई पड़ने लगा तब जाके दिल में ढाढस बँधा परन्तु उस प्रकाश तक पहुंचने में लगभग डेढ़ घंटे का समय लगा। वहाँ पहुँचने पर एक फूस की झोपड़ी पड़ी थी और बगल थोड़ा पुआल रखा था। बड़का पाँड़े आव न देखे न ताव पुआल पर गमछा डाल लिए और थोड़ा बहुत जो खाने का सामान था उसे खा पी लिया। ज्योंही सिर रखे नींद रानी जैसे इंतजार कर रही थी कि वो आ गयीं।
प्रातः काल आंख खुली तो भगवान सहस्र मरिचि मालिनी के ओजस्वी किरणों से सारा प्रांगण आप्लावित था। उधर रेसुंगा की बर्फ से ढंकी चोटियों पर सूरज की रक्तिम किरणें ऐसा लग रहीं थी जैसे भयानक युद्ध में दैत्यराज के सिर कट जाने पर भयंकर रक्त प्रवाहित हो रहा है। कहीं पर पक्षियों का मन मोहक कलरव बलात ही मन को आकर्षित कर रहा था। बड़का पाँड़े अपने मन में विचार कर रहे थे कि भगवान कितना रमणीकता प्रदान किया है इन पर्वतों को । रीड़ी नदी कल-कल मुखरित होते हुए आगे भागी जा रही, जैसे अपने खोये प्रीतम की तलाश में पीछा कर रही थी। वहाँ की नैसर्गिक सुषमा देखते ही बन रही थी। वन प्रदेश में कहीं पपीहा पी कहाँ पी कहाँ की टेर लगा रहा था। रक्त मुख बंदर पेड़ों पर उछल कूद कर रहे थे। बड़का पाँड़े स्नान इत्यादि कर भगवान भाष्कर को अर्घ अर्पित करे के बड़ा शांति सुखद अनुभूति प्राप्त कर रहे थे। कुछ खा पीकर पर्वतीय पगडंडियों को पकड़ कर आगे बढ़ने लगे । एक तरफ पहाड़ तो दूसरी तरफ हजारों फीट नीची खाई अनायास ही भय को दावत दे रही थी।
साम सूरज ढलने वाला था तभी तमघ्यास की चोटी लाँघ कर धुरकोट बड़का पाँड़े पहुंच गये। धुरकोट बड़ा ही सुंदर पहाड़ी शहर नेपाल का था। उसकी प्रकृतिक सौंदर्य का क्या कहना, पहाड़ियों के बीच हिमालय हाई स्कूल बना था, जो अपने बनावट से पथिकों का मन मोह लेता था। इधर चंद्रमणि चाचा बड़का पाँड़े के लिए कमरा किराये पर ले लिए थे। उनके कमरे में एक चौकी जिस पर सुंदर गद्दा चद्दर तकिया एवं एक ओजनी रजाई पड़ी हुई थी। कमरे की पूर्वी खिड़की खोलने पर स्कूल का भी दर्शन हो रहा था। एक वहाँ के साहूकार डीलाराम रीजल का आलीशान भवन दिखाई दे रहा था।
चंद्रमणि चचा मिलते ही उनको रूम पर ले आये तथा बताया कि भोजन शाम को हमारे यहाँ आपको करना है। थोड़ी देर आराम करने के बाद दोनों लोग एक साथ भोजन किये और बताये कि कल आपका भूगोल का डेमो क्लास है जरा प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुति हो खैर आप तो विद्वान आदमी हैं आपको हम क्या बता पायेंगे।
प्रातः काल होते ही बड़का पाँड़े नित्तिक क्रिया से निवृत्त होकर पूजा – पाठ करके, हल्का – फुल्का नाश्ता ले करके विद्यालय जाने के लिए तैयार होने लगे। कोट पैंट गले में सुंदर टाई , पैर में नागरा का परेटी जूता तथा कोट में एक खिला गुलाब का फूल जो कोट के चार चांद को द्विगुणित कर रहा था। इस प्रकार बड़का पाँड़े तैयार होकर विद्यालय में जा धमके। सारे बच्चों में भी उत्सुकता थी कि कोई नया मास्टर आये हैं, जो हम लोगों को पढ़ायेंगे। प्रिंसिपल साहब एवं मैनेजर साहब भी उनका परीक्षण करने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। बड़का पाँड़े को क्लास रूम में लाकर चपरासी ने छोड़ दिया जिसमे दसवीं के छात्र बैठे हुए थे तथा पहले से बच्चों के पिछले बेंच पर प्रिसिंपल साहब आसीन थे। बच्चे कुछ कानाफूसी कर रहे थे तभी गुरुजी बोले -“माई डियर चिल्ड्रेन नो क्वायट” अब गुरुजी कि अंग्रेजी धारा प्रवाह चलने लगी, उसे सुनकर प्रिसिंपल साहब हत्प्रभ हो गये एवं दस – पंद्रह मिनट बाद निकल कर चले आये, तथा चंद्रमणि त्रिपाठी से कहा कि सचमुच में ए मास्टर नहीं बल्कि एक हीरा विद्यालय के लिए मिल गया है। क्लास ओवर होते ही ज्यों गुरुजी बाहर आये त्योंही प्रिसिंपल साहब ने पीठ थपथपाया और कहा कि आप आज से पाँड़े नहीं बड़का पाँड़े हैं। उसी दिन से आज तक लोग गुरुजी को बड़का पाँड़े कहकर बुलाते हैं।