बचपन की सुनहरी यादें
जब दिल था निर्मल और चहरे पर मुस्कान थी।
न कोई चिंता और न कोई थकान थी।
हर सुबह थी नहीं उमंगों से भरी,
और हर शाम लाजवाब होती थी।
मिट्टी से खेलना, पेड़ों पर चढ़ना,
वो भी क्या दिन थे बेफिक्री से भरे।
गर्मी की छुट्टियों में गुल्ली डंडे का खेल,
लूडो और सांप सीधी का मेल।
स्कूल का बस्ता था भरी पर मन हल्का था।
वो बचपन भी कितना अच्छा था।
रंगीन पतंगों को उड़ाने का अलग ही मजा था।
तितलियों के पीछे भगाना भी अच्छा लगता था।
मां दादी हर रोज कहानियां सुनती थी।
वो बचपन अब बहुत याद आता है।
काश हम भी बच्चे फिर से बन जाए।
जो किया था बचपन में वो सब हम फिर से कर पाए।
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