अपरिछिन्न अलौकिक अविरल निश्छल सुसंस्कार कहां है।
सदा से विलसित रहने वाली प्रेम सुधा रसधार कहां हैं।
नव मालिका कली से भंवरा कहता है,
सदा अशेष सुबास कहां पर रहता है,
बाहों की माला सी कोमल पुष्पित शोभित हार कहां है।
सदा से विलसित ०
मधु की मधुता बौनी जिससे हो जाती है,
चिर क्लांति विश्रांति अचिर हो खो जाती है,
सप्तसिंधु के जल लघु करती प्रेम की अश्रुधार कहां है।।
सदा से विलसित ०
तपन देखकर अवनी की अम्बर रो पड़ता,
हरदी जरदी तजती चूना रंग बदल देता,
मन्मथ भी पथच्युत हो जिससे वह सोलह श्रृंगार कहां है।
सदा से विलसित ०
सूर्य चंद्र नक्षत्र प्रेम रस ढूंढ़ रहे हैं।
घोर तिमिर में दीप बुझाते मूढ़ रहे हैं,
शेष प्रेम की सीप से निकला अद्भुत मुक्ताहार कहां है।
सदा से विलसित०
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