लालच के वशीभूत हो जो धन मे ही डूबे
सुख में सदा ही साथ रहे दुख में जो छूटे
मजबूरियों के लाभ जिनके शौक बन गये
पशु रूप में ही रहे ओ मानव न बन सके
शब्द भीगे भाव मे न अर्थ बह सके
उसकी सफलता के न ये दरवाजे खुल सके
निस्वार्थ भाव मन में जिसके पल नहीं सके
फरिश्ता बनना दूर ओ मानव ना बन सके
जो लाभ में ही अपने सदा स्वार्थ में डूबे
धंधा ही किये स्वार्थ के सेवा न कर सके
मिल जाती कैसे खुशिया जिसने लछ्य न भेदे
ऊंचे उठे और अपनी मर्यादा भी जो भूले
विषम परिस्थिति साथ निभाए वही फरिश्ते होते हैं
अपने सद्गुण कर्मों से जो सब के दिल में रहते हैं
परहित बसा दिलों में जिनके पीड़ा सबकी सुनते हैं
धरती पर ईश्वर के रूप में वही तो मानव होते हैं
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