किनारे ही बैठ केवल कुलबुलाना है
कि साथी पार जाना है ?
है हवा प्रतिकूल,विस्तृत पाट,धारा भँवर वाली
बधिर बाधाएँ- करें हम प्रार्थना या बकें गाली
रेत का ही घरौंदा फिर-फिर बनाना है
कि साथी पार जाना है ?
बबूलों में,बगूलों में कब से ऐसे हम घिरे हैं
तैरने के नाम पर बस तर्क करते सिरफिरे हैं
स्वप्न बुनना ,लहर गिनना ,सिर खुजाना है
कि साथी पार जाना है ?
डूबने का डर लिए इस तरह तट पर डूबना क्या ?
पुतलियों में लक्ष्य हो फिर आपदा से ऊबना क्या?
मछलियों-सा पुलिन पर ही छटपटाना है
कि साथी पार जाना है?
रात की काली नदी के पार सूरज है चमकता
अग्नि में ही स्नात हो औजार में लोहा बदलता
लू-लपट में गुलमोहर का खिलखिलाना है
हमें अब पार जाना है !
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