तुलसी

हरिपुर के छोटे जमींदार देव बाबू के घर में आज खूब चहल-पहल हो रहा था , चारों ओर खुशियां हीं खुशियां थी । घर के सभी लोग झूम – झूम कर नाच गा रहे थे , लाडली भतीजी तुलसी की शादी जो थी । वर्षों बाद घर के लोग खुशियां मना रहे थे । जब से बड़े भैया और बड़ी भाभी का आकस्मिक निधन हुआ तब से घर में कोई उत्सव नहीं हुआ था , उन्हीं की बेटी तुलसी की शादी में आज घर के सभी लोग सारे गमों को भुलाकर आनंद मगन हो रहे थे । हो भी क्यों नहीं तुलसी की शादी प्रतापगंज के बड़े जमींदार बद्रीनाथ बाबू के छोटे भाई प्रेमनाथ बाबू के साथ हो रही थी । एक तो इतने बड़े जमींदार ऊपर से वकालत पास लड़का तुलसी के चाचा चाची के पांव जमीन पर टिकाए ना टिक रहे थे । गर्व से कह रहे थे – सभी अरमान पूरे हो गए इतना अच्छा रिश्ता मिला ,बड़े जमींदार, वकील लड़का ,भैया भाभी होते तो जी भर कर देखते कि अपनी लाडली बिटिया की शादी हम कितने बड़े घर में कैसे धूमधाम से कर रहे हैं ।

तुलसी देव बाबू के बड़े भाई स्वर्गीय दीनानाथ बाबू की एकलौती बेटी थी । आज से पन्द्रह साल पहले जब पंडित दीनानाथ बाबू की अपने मित्र बद्रीनाथ बाबू की शादी से लौटते वक्त रेल दुर्घटना में मौत हो गई थी । दिल दहला देने वाली उस भीषण दुर्घटना में हजारों लोगों की मौत हो गई थी । तुलसी की मां गंगा भी अपनी नन्ही सी जान को छोड़कर चल बसी थी । तब से आज तक घर में कोई उत्सव नहीं हुआ था । तुलसी सबकी लाडली थी । देव बाबू और उसकी पत्नी राधा ने तो अपनी संतान से भी ज्यादा लाड प्यार दिया , बरसो बाद घर में खुशी का माहौल था । सब अपने आप में मगन थे , सभी नाच गा रहे थे लेकिन तुलसी कहीं नजर नहीं आ रही थी । राधा दौड़ती हुई ऊपर गई। यह क्या ? तुलसी अपनी मां की तस्वीर से लिपट कर रो रही थी ।

क्या बेटा ! आज इतनी बड़ी खुशी के अवसर पर भी तूं……।

नहीं छोटी मां ! बस मां की याद आ गई थी ।

हां बेटा !भाई साहब और दीदी की याद तो हम सब को सता रही हैं पर बरसों बाद घर में खुशी आई है । बेटा ! हमारे प्यार में कोई कमी रह गई जो आज खुशी की जगह तूं इस तरह आंसू बहा रही है ?

नहीं – नहीं छोटी मां आपने तो वो प्यार दिया जो शायद मां भी नहीं दे पाती पर क्या करूं बरसों पहले की धुंधली छवि आंखों में आ जाती है ।

आंचल से आंसू पूछती हुई राधा बोली – हां बेटा ! मैं भूल गई थी कि खून और दूध का रिश्ता से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता ,भगवान का भी नहीं । चल नीचे चल सभी तुझे खोज रहे हैं शायद बारात आ गई है ।

दूल्हे की सुंदरता देख सभी मोहित हो गए । वैसे तुलसी भी कम सुंदर नहीं थी पर दूल्हे को देख सब कहने लगे धरती पर चांद उतर आया है । धूमधाम से शादी हो रही थी । हंसना रोना गंगा यमुना का मिलन जैसा लग रहा था । सब खुश थे परंतु दूल्हे का चांद जैसा चेहरा पर उदासी का काला बादल छाया हुआ सा लग रहा था । शादी के बीच दो तीन बार किसी का फोन आया । मंडप से कुछ दूर जाकर एकांत में बात करते देखकर देव बाबू से नहीं रहा गया तो जाकर बद्रीनाथ बाबू से पूछ हीं लिया -भाई साहब ! मंडप से उठकर जमाई जी किससे बात करने जाते हैं , मंडप से उठना अच्छा नहीं होता ।

बद्रीनाथ बाबू कुछ हकबकाते हुए बोले- नहीं नहीं कोई खास बात नहीं होगी, प्रेम का कोई खास दोस्त शादी में नहीं आ सका उसी का फोन आता होगा ।

शादी संपन्न हुई, विदाई होने लगी तो गंगा जमुना की धारा फूट पड़ी । तुलसी के आंसू में सब आब डूब करने लगे । क्या आपने क्या पराये सबने बिन मां की बच्ची को गले लगा लगा कर रोए । बद्री बाबू लड़की के पिता दीनानाथ बाबू के मित्र थे इस नाते देव बाबू ने अपनी पगड़ी उतारकर उनके आगे रखते हुए हाथ जोड़कर कहने लगे- भाई सा बड़े लाड प्यार से पाला है हमने तुलसी को, कोई भूल चूक हो जाए तो माफ कर दीजिएगा ,बिन मां की बच्ची है ,बड़ी भोली है । यह सिर्फ नाम की तुलसी नहीं हमारे आंगन की तुलसी है जो हमारे घर आंगन को महका कर अब आपके आंगन को महकाने जा रही है । बद्री बाबू भी विनम्रता से बोले चिंता मत कीजिए आंख की पुतली बनाकर रखेंगे हम अपने मित्र की आखिरी निशानी को ।

तुलसी की डोली उठते हीं राधा दहाड़ मारकर कटे पेड़ की भांति गिरी। ना तन की सुध रही ना मन की। भावविभोर होकर गाने लगी…..

बड़ा रे जतन हम धी बेटी पोसलउं…..।

सेहो बेटी जमइया लेने गेल…….।

सुगबा के पोसितउं पिंजरा बांधि राखितउं….।

धिया बेटी कोना उडि गेल…..।।

तुलसी की डोली ससुराल पहुंच गई । डोली द्वार लगते ही गांव की सारी औरतें दुल्हन को देखने उमड़ पड़ी । तुलसी को देख सब कहने लगे- वाह क्या जोड़ी है ,चांद के लिए आसमान से चांदनी उतर आई है। बूढ़पुराण सब, कोई सीताराम की जोड़ी तो कोई राधा कृष्ण की जोड़ी कह रहे थे। छोटी ननद ठिठोली करती हुई बोली – नहीं चाची वो सब जोड़ी अब पुरानी हो गई है, हमारे भैया भाभी की जोड़ी तो लैला मजनू की जोड़ी है । सभी ठहाका मार कर हंसने लगे ।

हमारी संस्कृति में रीति रिवाज भी क्या चीज होती है , बेटी जहां से चली वहां आंसुओं की धारा फूट पड़ी जहां आई वहां हंसी ठहाके की फुलझड़ी छड़ने लगी ।

अरिछन- परिछन ,गीत- नाद सब संपन्न हुआ। रात भर मेहमानों से भरा घर में उत्सव का माहौल रहा। घर की औरतें दुल्हन को घेरे रही तो दूल्हा भी रात भर मेहमानों से गिरा रहा। रात कब बीत गई पता हीं नहीं चला । सुबह का नाश्ता पानी के बाद सभी मेहमान अपने अपने घर जाने के लिए तैयार हो गए थोड़ी देर बाद प्रेम अपना बैग लेकर नीचे आकर भैया भाभी को प्रणाम कर बोला- भैया मेरा फोन आया है मैं जा रहा हूं,,

अरे ! फोन आया है ,जा रहा है , ये क्या कहा रहे हो प्रेम? कल तुम्हारी शादी हुई है ,दुल्हन से बात तक नहीं किया अरे ठीक से देखा भी नहीं और जा रहा है ? आश्चर्य से भाभी बोली ।

हां भाभी ! मुझे अभी जाना होगा एक जरूरी केस की तारीख है,,

देख प्रेम! केस मुकदमा मैं नहीं जानती तेरी शादी हुई है , घर का कोई त्यौहार नहीं है जो पुआ पकवान खाया और चलने को तैयार हो गया

अब जो कहो भाभी ! मुझे तो जाना ही होगा ,भैया सब जानते हैं मैं तो शादी के लिए राजी भी नहीं था, भैया की जिद के आगे मुझे झुकना पड़ा ।

प्रेम की बात सुनकर गायत्री सन्न रह गई । पति से मुखातिब होकर बोली- सुन रहे हैं आप , ये प्रेम क्या कह रहा है ,क्या आपने इसकी शादी जबरदस्ती करवाई है ?

बद्रीबाबू पाषाण की मूर्ति बने चुपचाप सब सुन रहे थे कोई उत्तर ना दे सके ।

गायत्री पति को चुप देखकर जोर से झकझोरती हुई बोली – अरे आप कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं ? प्रेम जा रहा है ,क्या जवाब देंगे ? कैसे संभालेंगे फूल जैसी अनाथ बच्ची को ?

बद्रीबाबू कांपते होठों से बोले – देख प्रेम माना कि तुझे शादी करने का मन नहीं था ,मेरी जिद पर तूने हां भरा ,पर शादी ब्याह तो विधि का विधान है अब इसका निर्वहन तो करना ही पड़ेगा । इस तरह यदि तूं चला गया तो हम किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे क्या कमी है दुल्हन में चांद जैसी सुंदर है । यही ना तुम्हारी उस मैडम की जैसी पढ़ी-लिखी नहीं है पर सुंदर है , सुशील है, समझदार है और क्या चाहिए?

ये सब बेकार की बातें हैं भैया! मैंने तो आपको पहले ही सब बता दिया था फिर क्यों जिद करते हैं? अभी हमको अपना कैरियर बनाना है ये घर गृहस्ती सब के लिए अभी मैं तैयार नहीं हूं ।

नहीं प्रेम ऐसा मत कहो खानदान की इज्जत को इस तरह मिट्टी में मत पलितो । उस मैडम के साथ तुम्हारी दोस्ती है तो दोस्ती तक हीं रहने दो, रिश्ता में बदलने की गलती मत करना मेरी नाक कट जाएगी क्या जवाब देंगे हम अपने स्वर्गवासी मित्र को।

यह सब आपको पहले सोचना चाहिए भैया ! अब सोच कर क्या फायदा ,मेरे हिस्से की जमीन जायदाद सब आपकी है तुलसी भी आप हीं के पास रहेगी ।

प्रेम की बात सुनकर गायत्री का चेहरा तमतमा उठा ,अंग अंग में क्रोध की ज्वाला धधक पड़ी। एक जोरदार थप्पड़ प्रेम के गाल पर मार कर हांफती हुई बोली – पापी जन्म दात्री का मुंह भी ठीक से नहीं देखा था, अपनी संतान की इच्छा कुचलकर तुझे दूध पिलाती रही यही दिन दिखाने के लिए पिता समान भाई से बात करने की तमीज भी नहीं रही…..।

दूसरी थप्पड़ लगने से पहले ही बद्री बाबू गायत्री का हाथ पकड़ कर बोला – नहीं गायत्री ! शायद हमारी परवरिश में हीं कमी रह गई, ये पढ़े-लिखे शहरी बाबू है ,हमारा प्रेम नहीं, हम ठहरे गांव गवार के लोग इतनी अकल कहां हम में,,

प्रेम अपना बैग उठाया और जाने लगा , उसे जाते देख गायत्री का दिल दहल गया मानो सूखे स्तनों में फिर से दूध की धारा फूट पड़ी । दौड़ती हुई आगे जाकर रास्ता रोक ली छोटे बच्चे की तरह छाती से लगाती हुई रो रो कर कहने लगी- ऐसा कठोर मत बन बेटा ! देख ले एक बार फूल जैसी उस नाजुक कली को, भगवान पहले हीं उस पर बहुत कुठाराघात किया है अब तूं कुछ करेगा तो नहीं सह पाएगी मर जाएगी बेचारी हम सब को पाप लगेगा, नरक में भी जगह नहीं मिलेगी । फिरअपने पति से बोली -अरे आप कैसे इस पाप का भागी बने ,सब कुछ जानते हुए भी अनजान रहे , मुझे भी नहीं बताया अरे दया करो उस अभागी पर……। अरे प्रेम बचपन में मेरा पल्लू पकड़ कर मां – मां भाभी मां करता रहता था ।आज मैं तेरे लिए इतनी पराई हो गई , मुझे बता दिया होता तो मैं यह अनर्थ नहीं होने देती , तेरी मां जैसी हूं बेटा मान ले मेरी बात?

प्रेम आंसू पोछ कर बोला- आप मेरी मां जैसी नहीं, मेरी मां हीं हैं भाभी मां! परंतु अभी मुझे मत रोकिए नहीं तो अनर्थ हो जाएगा ? जो होगा उसे सह नहीं पाऊंगा ,मुझे जाने दीजिए प्लीज भाभी मां मुझे जाने दीजिए…….।

बद्री बाबू गायत्री को प्रेम से अलग करते हुए बोले – छोड़ दे इसे जाने दे गायत्री। जा बेटा जा मगर तुम्हारे साथ बहू की जगह खानदान की इज्जत भेज रहा हूं अब तुम पर है इसे बचाओ या डुबाओ….।

प्रेम चले गए बद्री बाबू और गायत्री बेटी की विदाई के बाद थके हारे मां-बाप की तरह चुपचाप अंदर आकर बैठ गए।

गायत्री दिनभर सिसक सिसक कर रोती रही , समझ नहीं पा रही थी कि बहू का सामना कैसे करे किस तरह समझाए कैसे कहें कि तुमसे मिले बिना ही प्रेम चला गया ।

बद्रीबाबू गायित्री को समझा-बुझाकर बोला- जाओ तुम्हीं से होगा बहू से बात कर लो समझा दो कि प्रेम को जरूरी काम से जाना पड़ा, घर में बहुत लोग थे इसलिए लज्जा बस तुमसे मिले बिना हीं चला गया ।

गायत्री तुलसी के सर पर हाथ रख कर बोली – कितनी प्यारी है हमारी बच्ची बिल्कुल चांद की तरह भगवान दुनियां की बुरी नजरों से बचाए,,,।

झुकी नजर के साथ-साथ तुलसी का चेहरा भी झुक गया।

अपनी आंखों का काजल तुलसी के माथे पर लगाती हुई गायत्री बोली – बेटा ! जरूरी काम से प्रेम को अचानक जाना पड़ा ,जाते समय लज्जा बस तुमसे मिलने भी नहीं आया। जाते-जाते लजा कर बोला मेरी हीं तरह तुलसी का भी देखभाल कीजिएगा भाभी मां ,बड़ी भोली है। वह कोर्ट कचहरी का काम भी बड़ा अर्जेंट होता है दो दिन का भी ठीक से मोहलत नहीं मिलता । पर बेटा ! तुम चिंता मत करो हम हैं ना ? प्रेम के भैया सिर्फ तुम्हारे पापा के दोस्त हीं नहीं हम सचमुच तुम्हारे माता-पिता हैं । आज भी वह दृश्य याद कर कलेजा कांपने लगता है ।

तुलसी पाषाण की मूर्ति बनी नजर झुकाए खड़ी खड़ी चुपचाप सुनती रही। हिरनी जैसी बड़ी बड़ी आंखों से आंसुओं के बड़े-बड़े गोले सावन की बूंद की तरह टपकने लगे।

गायत्री कमर से चाबी का गुच्छा निकालकर तुलसी की हथेली पर रखती हुई बोली – ले संभाल अपने घर परिवार को ,मैं बूढ़ी हो गई हूं, थक चुकी हूं बरसों से संभालते हुए आज से तूं हीं मालकिन है इस घर परिवार की ।

कांपते होठों से तुलसी बोली – नहीं नहीं भाभी मां ! यह मुझसे नहीं होगा ,अभी तो घर को देखा भी नहीं इतनी बड़ी जिम्मेदारी मुझ से नहीं होगी ।

होगा – होगा सब कुछ तुमसे होगा । भले हीं बहू बनकर इस घर में पहली बार आई हो पर रिश्ता तो बरसों पहले से है ? बचपन में जिस घर को देखती थी आज भी वही घर है और फिर पूजा जो है तुम्हारी लाडली ननंद वह भी मदद करेगी,,,।

आगे तुलसी कुछ भी नहीं बोल पाई। उस बेचारी को क्या पता कि जिस मंदिर की पुजारिन बनने जा रही है उसका देवता हीं मंदिर छोड़कर जा चुका है ।

दिन – महीने , साल – बरस बीत गए प्रेम का कोई अता पता नहीं, कभी कोई चिट्ठी तक नहीं आई। बेचारी तुलसी घर परिवार चलाने में इस तरह व्यस्त हो गई कि कभी प्रेम के बारे में कुछ सोचने या पूछने का समय हीं नहीं मिला सब के आंखों का तारा , मुंह के बोल – तुलसी… बेटा तुलसी !… बहू !… तुलसी भाभी!…. हां आई …हां आई इसी में मगन तुलसी सिर्फ घर आंगन की तुलसी नहीं बल्कि सबके दिलों पर राज करने वाली दिल की धड़कन बन गई । सब के सो जाने पर रात के अंधेरे में प्रेम की तस्वीर को छू कर सिसक सिसक कर अपने आंसुओं से पखारती रहती ताकि विरह की धूल जमकर प्रेम को मैला ना कर दे ।

विरह हीं प्रेम का अमरत्व है जो पल भर भी हृदय से बाहर नहीं निकलने देता ,अमृत रूपी आंसुओं से सींच सींच कर हमेशा प्रेम को जीवित रखता है , मिलन तो प्रेम रुप प्रवाह का अंत है जिसमें प्रेमी-प्रेमिका एकाकार होकर वासना रुपी भूख सिर्फ मिटा सकता है ।

वासना की भूख का भी क्या अस्तित्व पल भर के लिए मिटती है दूसरे हीं पल फिर धधकने लगती है । विरह तो इन सब से परे प्रेम का अमरत्व है अमरत्व ।

जिस प्रकार चंद्रमा को देख देखकर चकोर अपनी रात व्यतीत करता है उसी प्रकार तुलसी के मलिन मुंह को निहार निहार कर घर के सभी लोग जी रहे थे । सभी हमेशा इस बात का ध्यान रखते थे कि तुलसी के मन को किसी के द्वारा किसी भी तरह से ठेस ना लगे परंतु ऊपरी मन का ख्याल तो सभी रखते थे पर आंतरिक मन की गहराइयों में जाकर अथाह वेदना को समझने का सामर्थ भला किस में था। भले हीं घर के लोग प्रेम की चर्चा कर तुलसी का दुख बढ़ाना नहीं चाहते थे लेकिन तुलसी का मन इतना तो जरूर समझ चुका था कि वह अपने मन मंदिर में जिसकी छवि बसा चुका है वह उसका नहीं शायद किसी और का है फिर भी वह राधा की तरह अपने किशन कन्हैया के प्रेम में बावरी बनी असह्य वेदना को सह रही थी ।

एक बार कोर्ट कचहरी का बहाना बनाकर बद्री बाबू प्रेम को खोजने पटना चले गए। वहां प्रेम तो नहीं मिला उसका एक मित्र मिला जिस ने बताया कि दो साल पहले प्रेम हेमा नाम की सहकर्मी के साथ शादी रचा कर दिल्ली चले गए । दिल्ली जैसे शहर में बिना अता – पता का खोज पाना असंभव था , और फिर खोज कर करता भी क्या उसे तो जो करना था कर लिया , भटके हुए राही को घर लौटाया जा सकता है पर जो जानबूझकर भटक गया हो उसे भला कौन लौटा सकता है। थक हार कर बद्री बाबू घर लौट आए । उसे अब अपनी गलती का घोर पश्चाताप हो रहा था पर पछताने से क्या ? तीर तो धनुष से छूट चुका उसे वापस करना असंभव था । धन दौलत सबसे विरक्ति हो गई , प्रायश्चित करना चाहा। मन में कई बार हुआ कि सभी जमीन जायदाद तुलसी के नाम कर काशी चले जाए ताकि मन को थोड़ी शांति मिल सके पर तुलसी यह सब लेकर करेगी क्या उसे तो किसी भी चीज की कोई इच्छा हीं नहीं थी । दो रोटी और तन ढकने के लिए दो मीटर कपड़े के सिवा उसे कुछ भी नहीं चाहिए । पश्चाताप की अग्नि में जल जल कर बद्री बाबू का शरीर दिन प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा था । गायत्री भी नाम भर की जिंदा थी, आशा तृष्णा सब मिट चुकी थी । एक तुलसी हीं थी जो बिना फल की इच्छा किए अपने परिवार रूपी बगिया को त्याग तपस्या और सेवा से सींच सींच कर जिंदा रखने का प्रयास में जी-जान से जुटी थी ।

एक दिन संध्या के समय बद्री बाबू और गायत्री गुमसुम दरवाजे पर बैठकर प्रभु नाम का जाप कर रहे थे तभी उसे लगा कि दरवाजे पर खड़ा कोई सिसक रहा है । अंधेरा घना हो चुका था पहचानने की कोशिश की पर पहचान में नहीं आया । आवाज दी कौन है आता क्यों नहीं पर टस से मस नहीं हुआ । सिसकने की आवाज और तेज हो गई । गायत्री ने आवाज लगाई तुलसी ! बेटा जरा लालटेन लाना तो ? तुलसी लालटेन देकर अंदर चली गई । खिड़की से दरवाजे की तरफ झांकने लगी अचानक छाती जोर-जोर से धड़कने लगी, लगा कोई तूफान आने वाला है । गायत्री लालटेन की बत्ती तेज कर पहचानने की कोशिश की पर नहीं पहचान पाई । नजदीक जाकर देखी तो दंग रह गई। हाथ से लालटेन छूट कर नीचे गिर गई , तेल बाहर पसरने से आग की लपटें तेज हो गई जिसमें चेहरा साफ- साफ दिखने लगा बद्री बाबू दौड़ पड़े । गायत्री जोर से चीखी- प्रेम ..प्रेम.. प्रेम.. मेरा लल्ला …मेरा बेटा….. प्रेम ….प्रेम….!

प्रेम अपनी भाभी मां के पैरों पर गिर कर जोर जोर से रोने लगा – मुझे माफ कर दो भाभी मां ! मैं भटक गया था… मैंने आप सब का दिल दुखाया है… मैं ने तुलसी को रुलाया है ….मुझे प्रायश्चित करना है भाभी मां……!

गायत्री प्रेम को उठाकर छाती से लगा लिया, लगा क्या लिया मानो सूखे स्तनों से दूध चूने लगा जिसमें प्रेम का तन बदन गीला होने लगा । फिर गायत्री प्रेम को छोड़कर खिड़की के पास खड़ी सिसकती हुई तुलसी को गोद में बैठाकर आंचल से आंसू पोछती हुई बोली -देख बेटा! मेरा प्रेम वापस आ गया है ….मेरा बेटा आ गया… मेरा लल्ला आ गया…. तेरा पति वापस आ गया….. चुप हो जा मेरी बच्ची ! बरसों से रो-रो कर तेरी आंखें बेजान हो गई है अब चुप हो जा मेरी बच्ची…..।

देर रात तक प्रेम अपनी भाभी मां की गोद में सर रखकर सि सकता हुआ अपनी आपबीती सुनाता रहा । किस तरह हेमा अपने प्रेम जाल में फंसा कर शादी की । कैसे गांव की जमीन जायदाद बेचकर दिल्ली में मकान खरीदने के लिए दबाव डालती रही और जब उसने उसका कहना नहीं माना तो तलाक देकर दूसरी शादी कर ली ।

गायत्री अपने आंचल से प्रेम की आंखों का आंसू पूछती हुई बोली -उस चुड़ैल ने कुछ नहीं किया बेटा ! मेरी तुलसी बेटी का त्याग तपस्या ने तुझे वापस लाया है। लाखों में एक है मेरी बच्ची , तूं भटक गया था मेरा बच्चा ! कोई बात नहीं अब तूं आ गया है ना ? सब ठीक हो जाएगा ।

तुलसी का रोम-रोम खिल उठा , मुरझाए हुए चेहरे पर हजारों चांदनी चमकने लगी , पतझड़ में फिर से मानो सावन का बहार आ गया । आंखों से निकलते हुए धाराप्रवाह आंसुओं में तुलसी का तन बदन डूबने लगा पर वे दुख के नहीं सुख के आंसू थे….।।

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रचनाकार

Author

  • अरुण आनंद

    कुर्साकांटा, अररिया, बिहार. Copyright@अरुण आनंद/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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