जाग जाग रे ज्ञानी मानव,
ज्ञान का दीप जला लेना।
चकाचौंध की इस आंधी में,
सोच जरा क्या पाया है तूंने,
भौतिकता की दौड़ लगाने में।
देख जरा तूं पीछे मुड़कर,
बिलक रही है उस कोने में।।
ज्ञान के बल विज्ञान सजाया,
रावण का दरबार लगाया है।
अष्ट सिद्धि नव निधि को तूंने,
घुटनों के बल लाया है।।
खोजो कहां गई मानवता तेरी,
धरती थर -थर कांप पर ही है।
उजड़ ना जाए ऋषि यों की धरती,
अब ये दुनियां भांप रही है।।
ये कैसा मंथन है तेरा,
विष अमृत दोनों पाया है।
मानवता का गला घोंट -घोंट कर,
मीठा जहर पिलाया है।।
मानवता को मार गिराया तुंने,
दानवता का साम्राज्य बनाने में।
अब तो बेबस देख रहा है तूं भी,
ये कैसी भूल हुई अनजाने में।।
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