बाखब़र होके मगर सोता रहा।
तमाम रात सितम होता रहा।।
मजाल समंदर की कुछ भी नहीं,
माझी ही कश्तियां डुबोता रहा।।
ये कैसा मर्ज़ है या और कुछ है,
अकेले जब भी हो वो रोता रहा।।
नफरतें झेल ली जहाँ भर की,
मगर उल्फत के बीज बोता रहा।।
चांद के चेहरे का ये काला पन,
बढ़ता ही गया जितना धोता रहा।।
अजनबी बन गये हैं वही लोग,
शेष कंधे पे जिन्हें ढोता रहा।।
दीया जलाने में अंगुलियां जली,
ये सिलसिला भी साथ चलता रहा।
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