खो गए हैं

खो गए हैं स्वार्थान्धकार में

मानव की मानवता,पुरुषों का पुरुषार्थ

औरत की पवित्रता,पापी का पश्चाताप

प्रेम भाई के प्रति भाई का, पिता-प्रेम मानव का

मानव-मात्र में द्वेष शेष है, मोल न कुछ जीवन का

कभी विनय, शील भूषण थे, मानव के इस जग में

भाव पवित्र कभी औरत का लज्जा, शील, सेवा का

मर्यादा पर भग्न शेष है, जीवन को जीने का

पुरुषार्थ अब शेष नहीं, है काम मोह ने घेरा

दया,विनय, तप, त्याग पुरुष का, व्रत उसने ही तोड़ा

उज्ज्वलता अब धूमिल शेष, मानव के जीवन का

प्रेम का भाव पवित्र कभी, अब तो होता है – सौदा

पाप-कर्म से पापी कभी थे, आज सेठ-सन्यासी

सत्ताधर शासन करते हैं – लुच्चे, बेविश्वासी

भाई के घर खुद भाई ही लूटपाट करता है

पुत्र उच्चासन छीन ‘पिता’ का शहंशाह बनता है

ममता का मर्म न समझा उसने, स्वार्थ से वो अँधा है

शील, विनय बंधन जीवन के तोड़ा जो डरता है

भागना चाह रहा है मानव जीवन के जंगल से

भूल परन्तु जाता वह, जीवन है उसको थामे

पीछे-पीछे ही मानव, रहता जीवन है आगे

भाग नहीं सकता मानव, चाहे कितना भी भागे

हार गया वह समझ न पाया, जीवन के इस रण में

मजा आता क्या बाँट खाने में, मर्यादित जीने में

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रचनाकार

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  • डॉ दिवाकर चौधरी

    कल्याणी प्रतिभा हो मेरी, मधुर वर्ण-विन्यास न केवल||Copyright@डॉ दिवाकर चौधरी इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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