सर्दियों का समय था। एक झोपड़ी के दरवाजे पर बाप-बेटा बुझी हुई आग के सामने बैठे हुए थे। झोपड़ी के अंदर बेटे की पत्नी बुधिया प्रसव के दर्द से गुजरने की वजह से कराह रही थी। कभी हल्की, तो कभी जोर से उसके मुंह से चीखें निकलती थी। उसके कराहने की आवाज और चीखें सुनकर दोनों बाप-बेटे का दिल सहम जाता था।बुधिया के ससुर घीसू ने आधी रात तक चीखें सुनी और फिर थककर कहा कि ये बचेगी नहीं।
घीसू का बेटा और बुधिया के पति माधव ने चिढ़ते हुए जवाब दिया, “मरना है तो जल्दी मरे।”
पिता ने कहा, “अपनी पत्नी के लिए ऐसा कह रहा है, जिसने अपना रात-दिन इसी घर को दिया।”
तब दुखी आवाज में माधव बोला, “मुझसे उसका इस तरह तड़पना और हाथ-पांव मारना देखा नहीं जा रहा है।”
दोनों ही बाप-बेटे काम से जी चुराते थे। बाप एक दिन काम करता, तो दो दिनों तक घर में आराम। उसका बेटा माधव तो और भी ज्यादा कामचोर था। एक घंटे काम करता था और फिर दो घंटे तक हुक्का पीता रहता। इनकी ऐसी ही हरकत की वजह से कोई इन्हें काम नहीं देता था। ऐसा नहीं था कि गांव में काम की कोई कमी थी, लेकिन घर में जबतक खाने के लाले न पड़ जाएं, तबतक ये काम के लिए घर से निकलते नहीं थे।
पूरी झोपड़ी में चार बर्तन और कुछ फटे हुए कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं था। दौलत के नाम पर यही था इनका। दोनों के सिर पर खूब कर्ज था, लेकिन संतोष इतना कि इन्हें बस एक टाइम थोड़ा खाना मिल जाए उसके अलावा कुछ नहीं चाहिए था। दुनिया भर के ताने भी सुनते थे, लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। इनमें इतना संतोष था कि इनके सामने साधु-संतों का संतोष भी कम पड़ जाता था।
जब बहुत जरूरत पड़ती थी तो बाप पेड़ से कुछ लकड़ियां तोड़ता और उसका बेटा उन्हें बेचकर कुछ पैसा ले आता था। ये पैसा जबतक इनके पास होता, तबतक दोनों में से एक भी काम करने के लिए नहीं जाते थे। अगर कभी घर में खाने को कुछ न होता तो आस पड़ोस के खेतों से कभी आलू ले आते, तो कभी गन्ना। आखिर गांव था भी किसानों का ही। किसी-न-किसी खेत में मौसम के अनुसार कुछ-न-कुछ मिल ही जाता था।
इसी तरह से घीसू ने अपनी जिंदगी के साठ साल काट लिए थे। आज भी बाहर आग के पास बैठकर किसी के खेत से लाए आलू को भूनकर दोनों बाप-बेटे खा रहे थे और बुधिया अंदर दर्द में तड़प रही थी। माधव की बुधिया से कुछ साल पहले ही शादी हुई थी। उसने घर को अच्छे से संभाल लिया था, लेकिन माधव और घीसू और भी कामचोर हो गए थे। अभी दोनों के मन मे था कि बुधिया जल्दी से दुनिया से चली जाए और वो आराम कर सकें।आग में भूना हुआ आलू छीलते हुए घीसू ने अपने बेटे से कहा कि अपनी पत्नी को अंदर देखकर आ जाओ। कुछ हो गया, तो पैसा भी नहीं है कोई काम करवाने के लिए।
घीसू के बेटे ने अंदर जान से इनकार कर दिया। उसे डर था कि कहीं उसका पिता सारे आलू न खा जाए। वो बोला कि मुझे डर लगता है। आप ही अंदर जाकर क्यों नहीं देख लेते हैं?
माधव के पिता घीसू ने जवाब दिया, “कैसा डर? मैं बैठा तो हूं यहां। तुझे पता है जब तेरी मां बीमार हुई थी, मैं उसके पास तीन दिन तक बैठा था। अगर मैं अंदर जाता हूं, तो उसे शर्म आ जाएगी। ससुर हूं उसका, वो कैसे मेरे सामने अपने हाथ-पांव पटक पाएगी।”
जवाब में माधव ने कहा, “बच्चा हो गया, ते क्या करेंगे। हमारे घर तो कुछ सामान भी नहीं है।”
माधव बोला, “बच्चा आए तो सही एक बार। घर में भी सारा जरूरी सामान आ जाएगा। भगवान सब संभाल लेंगे। कल के दिन यही आस-पड़ोस के लोग बच्चा होने पर बिन मांगे घर में ही चीजें देकर जाएंगे।”
वैसे घीसू के गांव के मेहनती किसानों की भी हालत कुछ अच्छी नहीं थी। सिर्फ वो लोग ही पैसे वाले थे, जो किसानों को दबाते या उनका हक मारते थे। घीसू के साथ यही चीज सबसे अच्छी थी कि उसका कोई पैसा नहीं मार सकता था। वो न तो रातदिन मेहनत करके पैसा कमाता था और न ही अपना फायदा किसी को उठाने देता था। कोई काम देने आ भी जाए कभी, तो तीन-चार गुना ज्यादा मजदूरी की रकम बता देता था।घीसू को इसी बात की तसल्ली थी कि वो दूसरों कि तरह रातदिन मेहनत करके भी फटेहाल में नहीं था। वो तो मेहनत करता ही नहीं था और अपनी जिंदगी को मजे से जीता था। उसके साथ के लोग मुखिया या गांव का दूसरा ओदा हासिल कर चुके थे, लेकिन वो गरीब का गरीब ही था। इस बात के लिए गांव के लोग उसे कोसते थे, पर मजाल है कि घीसू को कुछ देर के लिए भी बुरा लगे।घीसू और माधव को भूख इतनी लगी थी कि वो गर्म-गर्म आलू खाकर अपनी जीभ जला रहे थे। आंखों से आंसू निकल रहे थे, लेकिन पेट की आग बुझाने के लिए वो गर्म-गर्म आलू को निगलकर उसकी आग को पेट तक पहुंचा देते। ज्यादा गर्म आलू खाने की वजह से दोनों की आंखों से पानी निकल रहा था, पर भूख तेज थी, इसलिए दोनों में से कोई रुका नहीं।आलू खाते हुए ही घीसू को बीस साल पहले निकली ठाकुर की बारत में मिली दावत याद आ गई। उस दावत में जिस तरह से पेट भरकर घी में तली हुई पुड़िया, कचौड़िया और दूसरे व्यंजन खाने को मिली थी, वैसे दोबारा कभी नहीं मिला।
यह सब सोचकर घीसू मुस्कुराया। तब तक आग में भूने हुए आलू खत्म हो चुके थे। अब घीसू और उसके बेटे ने हाथ धोया और दोनों सो गए। उधर, बुधिया अभी भी दर्द से करहा ही रही थी। रातभर अच्छे से सोने के बाद जैसे ही माधव की नींद खुली तो सबसे पहले अपनी पत्नी को देखने के लिए गया, लेकिन तबतक उसका शरीर ठंडा हो चुका था। उसके पेट में बच्चे के मरने की वजह से बुधिया की भी मौत हो गई थी।
माधव भागते हुए अपने पिता के पास गया और उसे बुधिया का हाल सुनाया। यह बताते हुए माधव जोर-जोर से रोने लगा और उसका साथ देते हुए घीसू भी हाय-हाय करते हुए अपनी छाती पीटता तो कभी सिर के बाल नोचता। इतना शोर सुनकर आस-पड़ोस के लोग दौड़ते हुए आ गए।
सबने बुधिया की मौत पर शोक जताया और चले गए। अब माधव और घीसू रोने पर ज्यादा वक्त बर्बाद नहीं कर सकते थे, क्योंकि उन्हें कफन और लकड़ी का इंतजाम करना था। घर में तो इतने पैसे थे नहीं कि इन्हें खरीदा जा सके। पूरा घर टटोलने पर भी दोनों को एक पैसा नहीं मिला। थक-हारकर दोनों रोते-रोते गांव के जमीनदार के पास पहुंच गए। जमीनदार को दोनों कामचोरी की वजह से बिल्कुल पसंद नहीं थे, लेकिन वो दयावान था। उसने सोचा कि अभी गुस्सा दिखाने का समय नहीं है, इसलिए जल्दी से जेब से दो रूपये निकालकर उन्हें दे दिए।अब जमीनदार ने पैसे दिए हैं, यह सुनकर गांव के बड़े-बड़े लोग भी मदद करने से मना नहीं कर पाए। सबने घीसू को कुछ-न-कुछ दे दिया। घंटे भर में घीसू के पास पांच रूपये, अनाज, लकड़ी व अन्य जरूरी समान जमा हो गया था। बस अब जरूरत थी तो कफन की।
दोपहर का समय था दोनों बाप-बेटे कफन खरीदने के लिए पांच रूपये लेकर बाजर चले गए। घीसू ने बाजार पहुंचर कहा, “लकड़ी तो मिल गई है, तो अब एक हल्का सा कफन खरीद लेते हैं। अच्छा खरीदकर भी क्या करेंगे उसे तो जलना ही है।”
अब दोनों सस्ता और हल्का सा कफन खरीदने के लिए एक दुकान से दूसरी दुकान जाने लगे, लेकिन उन्हें सस्ता कुछ भी नहीं लगा।
तभी माधव ने कहा, “कैसा रिवाज है, जिस औरत को जिंदा रहते हुए अच्छे कपड़े पहनने के लिए नहीं मिले, उसे मरने पर नया कफन ओढ़ाना होगा। ये पांच रूपये पहले मिलते तो अच्छे से दवाई कर लेते। शायद आज वो जिंदा होती।”
सूती, रेशम हर तरह का कफन दोनों बाप-बेटे देख चुके थे। दोपहर से शाम हो चुकी थी, लेकिन दोनों को कुछ भाया नहीं। तभी उन्हें पास में ही एक मैखाना दिखा। दोनों वहां गए और पहले एक बोतल ली। उसके बाद खाने के लिए चटनी, मछली और तमाम चीजें मंगाई। दोनों ने आज खुलकर खाया। इतना खाया कि दो रूपये खत्म हो गए।
घीसू बोला, “बहू को कफन ओढ़ाते तो क्या होता, जल ही जाता न। कुछ भी बहू के पास तक नहीं पहुंचता, लेकिन आज इतना खा लिया है कि मन तृप्त हो गया। उसे हमारी दुआएं लगेंगी। बड़े लोगों के पास खूब पैसा हो, तो वो नए कफन में फूंकते हैं।”
बेटे ने पूछा, “जब लोग सवाल करेंगे कि कफन कहा है, तो क्या कहोगे उन्हें?”
घीसू ने हंसते हुए कहा, “उन्हें कहेंगे पैसे कहीं गिर गए और खूब ढूंढने पर भी नहीं मिले। भले ही लोगों को विश्वास न हो, लेकिन कफन वो खुद ही ले आएंगे या रुपये देंगे।”
अपने पिता की इस बात पर माधव भी जोर-जोर से हंसने लगा और फिर बोला कि बहुत अच्छी थी बुधिया। जाते-जाते हमें खूब खिला गई। उसे स्वर्ग में ही जगह मिलेगी।
अब बचे हुए पैसों से घीसू ने और पूडियां मंगवाई और साथ में अचार भी। मजे से दोनों पूडियां खा रहे थे। खाते-खाते घीसू ने कहा कि हमारी आत्मा खुश हो रही है, तो उसे पुण्य तो मिलेगा ही।
माधव ने भी सिर हिलाते हुए हां कहा। कुछ देर सोचकर माधव बोला कि ऐसा भोजन कभी नहीं मिला था हमें। उसे स्वर्ग में जगह तो मिलेगी ही। आखिर उसी की वजह से हम ये सब खा पा रहे हैं। फिर माधव ने कहा कि क्या हम लोग भी एक दिन स्वर्ग जाएंगे।
माधव के इस मासूम सवाल का घीसू ने कोई जवाब नहीं दिया और कहा कि चुपचाप से खाना खाओ। वो इस वक्त ऐसी बातें करके अपना आनंद कम नहीं करना चाह रहा था।
फिर माधव ने पूछा, “अगर बुधिया स्वर्ग में हमसे पूछेगी कि मेरे लिए कफन क्यों नहीं लाए, तो हम क्या जवाब देंगे?”
घीसू पूछने लगा, “तुझे किसने कह दिया कि उसे कफन नहीं मिलेगा। बिल्कुल मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा।”
“कौन देगा? सारा पैसा तो हम खा गए”, नाराज होते हुए माधव ने कहा।
जवाब में घीसू बोला, “वही देंगे जिन्होंने इतना कुछ दिया है। बस इस बार पैसा हमारे हाथ नहीं लगेगा, लेकिन कफन जरूर आएगा।
माधव जोर-जोर से रोते हुए कहने लगा, “स्वर्ग की रानी बनेगी मेरी पत्नी। उसने बहुत दुख झेला है यहां“
पिता ने उसे चुप कराने की कोशिश की और कहा, “ रो मत वो दुनिया के दुख से दूर चली गई।”
अब दोनों खड़े होकर गाना गाने लगे, नाचने लगे। सब उन्हें देख रहे थे, लेकिन उन्हें किसी से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। नशे में चूर बाप-बेटे ‘नैना झमकावे-नैना झमकावे’ गाते-गाते उसी जगह पर गिर गए।