आंगन के फूल

लोग कहते हैं कि मां-बाप के लिए सभी संतान एक जैसी होती हैं पर ऐसा होता कहां है, यह तो सिर्फ कहने सुनने के लिए है।

बचपन से हीं मैं भेदभाव को सहती और झेलती आ रही हूं । एक गरीब मां बाप के घर तीन – तीन बेटियां जो पैदा हो गई । बड़ी संतान होने के कारण मुझे तो थोड़ा सा लाड़ प्यार मिला भी पर मेरी दोनों छोटी बहनें तरसती रह गई । कहने के लिए तो मां की ममता सागर से भी अधिक गहरी होती है । आंचल से ढक कर शिशु को स्तनपान कराती हुई मां की आंखों में प्रेम के आंसू जब छलकने लगते हैं तो समुद्र भी दीन हींन सा छोटा पड़ जाता है । वात्सल्य स्नेह का एक बूंद आंसू में सागर का सारा जल समा जाता है परंतु हमारे नसीब में यह सब कहां था दो मीठे बोल के लिए कान तरसते रह गए । कड़वाहट की घूंट पी पी कर हम तीनों बहनें बड़ी होने लगी । घर में गाय दूध देती थी पर दादी कहती कठौती जैसी बेटियां पैदा हुई अब दूध पिला पिला कर इसे पहाड़ बनाओगे क्या ? दूध बेच लो दो-चार पैसे होंगे तो घर गृहस्ती में काम आएगा।

मां धरती होती है, सब कुछ बर्दाश्त करके भी संतान को हृदय से लगाकर रखती है पर मेरी मां भी वैसी नहीं ,दादी के सुर में सुर मिलाकर हमेशा खरी-खोटी सुनाती हीं रहती थी-अभागी ! सब को मेरे हीं घर आना था और कोई घर नहीं मिला? हां एक पापा थे जो कभी-कभी सर पे हाथ रख कर प्यार के दो मीठे बोल बोल देते थे तो निहाल हो जाती थी हम तीनों बहनें । डूबते को तिनके का सहारा, भूखे को सुखी रोटी जैसे थे पापा के दो मीठे बोल । दादी को वह भी बर्दाश्त नहीं होता था नाक भौं टेढ़ी कर पापा से कहती-हां हां माथे पर चढ़ा कर रखो महारानी सबको छाती पर मूंग दड़रने जो आई है । जो दो चार बीघा जमीन है सब बेचकर शादी ब्याह करा देना फिर जिंदगी भर ढोल मृदंग बजाते रहना ।

याद नहीं कि दोनों छुटकी के लिए कभी पर्व त्यौहार में भी कोई नया कपड़ा खरीदा गया होगा। कभी ना फटने वाला सिंथेटिक कपड़ा जब मुझे छोटा हो जाता तब उसी को मझली और फिर छोटी पहनती थी।

हाथ की अंगुलियां ठीक से सीधी भी नहीं हुई थी कि घर के कामकाज सीखने लग गई । झाड़ू बर्तन से लेकर गाय गोबर सानी टुच्चा सब हमहीं तीनों बहनों के नसीब में था। आंगनबाड़ी केंद्र तो जाती थी पर शायद खाने के निमित्त पढ़ने के नहीं । मैं जब थोड़ी बड़ी हुई तो पापा गांव के सरकारी स्कूल में नाम लिखवा दिए। उसमें भी दादी ढोल नगाड़े की तरफ कपार पीटने लगी-पढा लो पढ़ा लो मास्टरनी बन जाएगी, भोजबा तेली से राजा भोज बनने चला ।

मां भी कम विरोध नहीं की -तीन तीन बेटियां हैं जी ,क्या करोगे पढ़ा लिखा कर ? घर का काम काज सीखेगी तो सब दिन काम आएगा ।

फिर पापा समझा कर बोलते अरे तुम लोग समझते क्यों नहीं हो स्कूल जाएगी तो थोड़ा बहुत पढ़ भी लेगी और खाना ऊना भी वहीं खा लेगी फिर छात्रवृत्ति के पैसे भी तो मिलते हैं ना?

दादी मुंह निकाल कर बोलती वो क्या होता है बेटवा !

फिर पापा समझा कर कहते-अम्मा! सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को सरकार कपड़े किताब और अन्य चीजें खरीदने के लिए हर महीने पैसे देती है घर का पैसा खर्च नहीं होता है । तब जाकर कहीं दादी का गुस्सा शांत हुआ और मैं स्कूल जा सकी । स्कूल से आते हीं घर का सारा काम काज में लग जाती । एक भी काम छूट जाता तो दादी दहाड़ने लगती- काम के डर से स्कूल में बैठी रहती है कौन सा कलेक्टर बनना है जो दिन भर स्कूल में हीं बैठी रहेगी?

कौन उसे समझाए कि स्कूल का रूल नियम होता है । वह पापा के सिवा और किसी का सुनती हीं कहां थी ।

मेरी छोटी बहन रूपा जब तीन साल की हुई तब मां फिर पेट से हो गई । दादी ने गर्भपात कराने के लिए घर में तांडव मचा दिया पर पापा भी अडे रहे, जो होगा देखा जाएगा । दादी दहाड़ कर बोली – कान खोल कर सुन लो अगर फिर से कहीं निगोड़ी आ गई तो नूंन चटाकर मार दूंगी हां…..। पापा कुछ नहीं बोले। तब मैं यह सब कहां समझती थी पर अब सब समझने लगी हूं । इस बार ईश्वर ने सबका सुन लिया, घर में एक नन्हा सा प्यारा सा भाई आ गया । घर में बहुत बड़ा उत्सव जैसा माहौल बन गया इतनी खुशियां घर में पहले कभी नहीं देखी थी मैंने । हम तीनों बहनें भी काफी खुश थी प्यारा सा भाई जो मिल गया था । दादी के पैर तो जमीन पर टिकते हीं नहीं थे । पूजा-पाठ , ढोल नगाड़ा से लेकर पंवरिया का नांच तक सब हुआ । दादी ने नाम दीपक रखा क्योंकि वह कुल का दीपक जो था । मां राजा बाबू कहती थी सो हम तीनों बहनें भी राजा बाबू हीं कहने लगे ।

दादी पल भर भी पोते को अपने से दूर नहीं होने देती थी। हम तीनों बहनें तो जन्म से उपेक्षित थी हीं अब कुल का दीपक आ जाने से मां और दादी की आंखों का कांटा बन कर रह गई । हां मां कभी-कभी रूपा को यह कह कर थोड़ा सा लाड़ प्यार दिखा देती की लड़की भाग्यशाली है इसी के पीठ पीछे बेटा हुआ नहीं तो जीवन भर अभागिन बन कर रह जाती। तीन तीन बेटियों को जन्म देने वाली को दादी जो हमेशा कुलच्छिन अभागिन कहती थी। पापा हीं घर में एक ऐसे थे जो सबको बराबर लाड़ प्यार करते थे ।

मैं दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई । पापा खुश होकर बोले मैं अपनी बिटिया को कॉलेज की पढ़ाई भी कराऊंगा । गांव के उच्च विद्यालय में हीं बारहवीं तक की पढ़ाई होने लगी । मुझे स्कूल से साइकिल भी मिल गई । अब पापा भी साइकिल चलाने सीख गए । मेरी दोनों बहनें मीरा और रूपा भी मन लगाकर पढ़ने लगी ।

राजा पांच साल का हो गया । दो साल तक गांव में पढ़ाई करने के बाद उसका दाखिला शहर के प्राइवेट विद्यालय में करा दिया गया । शहर से स्कूल बस आती थी बच्चों को ले जाने के लिए । रूपा पढ़ने में बहुत तेज थी सो उसका भी नाम शहर के प्राइवेट स्कूल में लिखवाने के लिए मैंने पापा से आग्रह किया तो दादी ने फिर से आसमान को सिर पर उठा लिया बोलने लगी -बेटी पराई होती है उसके पीछे इतना पैसा खर्च करके क्या मिलेगा ? कौन सा इसे डॉक्टर इंजीनियर बनना है जो शहर जाएगी पढ़ने के लिए ? गांव के स्कूल में जितना पढ़ लेगी वही बहुत है। मां भी दादी के सुर में सुर मिलाती रही। पापा कुछ नहीं बोले ।

बारहवीं की परीक्षा में मुझे पूरे कॉलेज में पहला स्थान आया । मैं बहुत खुश थी पापा भी खुश थे । मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना चाहती थी परंतु घर में फिर से कोहराम मच गया । दादी पापा से कहने लगी सत्तरह साल की हो गई है अब कोई अच्छा लड़का देखकर इसकी शादी करा दो। ये फस्ट उस्ट से कुछ नहीं होता है आखिर ससुराल जाकर चुल्हा चौका हीं तो संभालना है ।

मां भी पापा से कहने लगी- हां जी तीन तीन बेटियां हैं कब तक बोझ बना कर रखे रहोगे ,शादी ब्याह करा दो सर से बोझ हल्का हो जाएगा। पापा को भी चुप देख मुझसे नहीं रहा गया मैं भी अपनी जिद पर अड़ी रही। पापा से बोली- मैं अभी शादी नहीं करूंगी, मैं अभी नाबालिग हूं। मैं पढ़ लिखकर कुछ बनना चाहती हूं, अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं आप लोग शादी के लिए जोर जबरदस्ती करेंगे तो मैं कानून का सहारा भी ले सकती हूं। मेरी बात सुनकर मां और दादी घर में तांडव मचा दिए पापा भी गाल मुंह फुला कर बैठे रहे पर मैं भी अपनी जिद पर अड़ी रही।

शाम को मां समझा ती हुई बोली – देख तुम अकेली नहीं हो , तीन-तीन बहनें हो कब तक घर में बैठा कर रखूंगी । मैं तो तेरह साल में हीं ससुराल आ गई थी। तूं तो सोलह को पार कर गई ,क्या हर्ज है शादी होने में फिर दूसरी और तीसरी बहन भी तो हैं ना? उसके बारे में भी सोचना है ना ?कब तक आप के सर पर बोझ बनी रहेगी? पर मैं नहीं मानी ,मैंने साफ-साफ कह दिया कि जब तक मेरी पढ़ाई पूरी ना हो जाए तब तक मैं शादी के लिए सोच भी नहीं सकती ।

मैं गांव से बीस किलोमीटर दूर साइकिल से शहर जाने लगी । सुबह शाम गांव के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगी कुछ पैसे भी होने लगे और गांव के बच्चे पढ़ने भी लगे। मीरा और रूपा भी प्रथम श्रेणी से दसवीं की परीक्षा पास की । सरकार से दस दस हजार रुपए भी मिले। घर का माली हालत भी सुधारने लगा। हम तीनों बहनें पढ़ाई और घर के कामकाज के सिवा समय-समय पर खेती-बाड़ी में भी पापा की मदद करने लगे । पापा भी जी जान से कमाने लगे घर में चार चार बच्चे जो थे । घर ठीक-ठाक चलने लगा । दादी ने इसका भी श्रेय अपने पोते के हीं सर पर रख दिया-बड़ा लछणमान है मेरा पोता ,जब से आया है दिन दूना रात चौगुना हो रहा है ।

राजा का मन पढ़ाई में नहीं लगता था स्कूल के समय हमेशा कहीं ना कहीं भाग जाता था । गांव के आवारा लड़कों के साथ हमेशा घूमते रहना उसकी आदत बन गई । दादी को उसकी हर बुराई में अच्छाई नजर आती थी । पापा बोलते तो कहने लगती बच्चा है लड़कपन में सब ऐसा हीं होता है, अपना बचपन याद करो खाना परोस कर कहां-कहां नहीं खोजती फिरती थी। हमेशा लड़कों के साथ गुल्ली डंडा खेलते रहता था ।अरे मरद होकर जन्म लिया है घूमेगा फिरेगा नहीं तो क्या चूड़ियां पहन के घर में बैठा रहेगा क्या? जिसे घर में बैठाना चाहिए उसे तो बेलगाम घोड़ी की तरह फ्रीफंड छोड़ रखा है। जा- जा ,जा के खेत पथार देख छोड़ दे मेरे पोते की चिंता । पापा चुप हो जाते जानते थे दादी से बहस करना समुद्र को उलछने जैसा है।

अब हम तीनों बहनें पढ़ने के लिए शहर जाने लगी ।मीरा और रूपा भी ट्यूशन पढाकर अपना खर्च स्वयं निकाल लेती थी, समय-समय पर हम लोग घर चलाने में पापा की मदद भी करने लगे ।

मेरा राजा भाई तीन बार मैट्रिक में फेल हुआ । उसकी आवारागर्दी चरम पर पहुंच गई । कई बार मां और दादी के गहने बेचकर आवारागर्दी में उड़ा दिया । जुआ शराब सब का आदी हो गया । डांट डपट करने पर कई कई दिनों तक अपने आवारा दोस्तों के साथ घर से बाहर हीं रहने लगा ।अब दादी भी उसकी आवारागर्दी से तंग आ चुकी थी । दादी का नजरिया बदलने लगा जिसे आंखों का तारा कहती थी उसी से आंखें चुराने लगी। सब किस्मत का दोष है कहकर किस्मत पर सारा दोष थोप देती । दादी के मन के किसी कोने में कहीं ना कहीं हम तीनों बहनों के प्रति प्रेम के बीज अंकुरित होने लगे । अब पास में बैठा कर पढ़ाई लिखाई के बारे में भी कुछ पूछ लेती और रामायण महाभारत सुनाने की जिद भी करती । रूपा दादी से बहुत चिढ़ती थी इसलिए मीरा और मैं उसे प्यार से समझा कर बोली – देख रूपा! दादी बुरी नहीं है बस थोड़ा सा कड़क मिजाज है। हम लोगों के प्रति दादी की जो सोच है उसमें उसकी गलती नहीं है पुराने जमाने की सोच और अशिक्षा के कारण दादी का व्यवहार ऐसा है। देख बड़ों की इज्जत करने में हीं शालीनता होती है। हम प्यार से हीं उनका दिल जीत सकते हैं ।

धीरे-धीरे हम तीनो बहनें दादी की लाडली बन गई ।पता हीं नहीं चला कि दिन-रात कुलदीपक की माला जपने वाली दादी कब और कैसे बदल गई। जो हमेशा हमारी बुराइयां करती थी अब वही घूम घूम कर हम तीनों की प्रशंसा करने लगी । दादी ने तो अब राजा से टोका चाली भी बंद कर दी । दुनियां की ऐसी कोई बुराई नहीं जो कि राजा में नहीं थी। समझा समझा कर हम लोग थक गए पर वो किसी का सुनता हीं कहां था। घर से भाग जाने या आत्महत्या कर लेने की धमकी देने लगा । दादी का खस्सी चोरी-छिपे बेचकर मोबाइल खरीद लिया। दिन भर से लेकर आधी आधी रात तक घर से बाहर हीं रहने लगा। ना खाने पीने का ठीक ना सोने जागने का। नशे के बुरी लत लग गई । आधी रात को टगते झूमते घर आते कोई कुछ बोले तो वही भागने या आत्महत्या करने की धमकी देकर सो जाता । पता नहीं कौन सा पब्जी गेम मोबाइल में खेलते खेलते हर समय अकेले अपने आप बड़बडाता ,पागलों की तरह जोर जोर से हंसता चीखता चिल्लाता और भद्दी भद्दी गालियां बकता । गांव के लोग कहने लगे भगवनमां का बेटा पागल हो गया है ।

एक रोज आधी रात को नशे में धुत होकर घर आया और पापा से बदतमीजी करने लगा तो पापा ने दो थप्पड़ लगा दिये । सुबह में जब सभी सो कर उठे तो राजा का कोई अता पता नहीं था । तकिए के नीचे कागज के टुकड़े पर लिखा हुआ मिला – मैं जा रहा हूं मुझे मत खोजना मैं आप सबके लिए मर गया हूं ।

हम सब ने कहां-कहां नहीं खोजें सभी रिश्तेदारों के घर गए पर कहीं नहीं मिला । उसके दोस्तों से पूछे किसी ने कुछ भी नहीं बता पाया।

पांच साल बीत गए पर राजा का कहीं कोई पता नहीं चला। हर कोशिश बेकार गयी। पापा दिल्ली पंजाब तक खोजने गए जहां जो कहता वहीं दौड़ जाते पर कहीं नहीं मिला । हम लोग हर साल उसका जन्मदिन मनाते हैं । हर रक्षाबंधन के दिन हम तीनों बहनें राखी बांधते हैं पर भाई की कलाई पर नहीं उसकी तस्वीर पर ।

आज मैं अपने गांव के हीं विद्यालय में शिक्षिका हूं । मेरी दोनों बहनें कोटा में मेडिकल की तैयारी कर रही हैं। मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मैं जिस विद्यालय से प्रारंभिक शिक्षा पाई आज उसी में शिक्षा का दीप जला रही हूं।

मैं अपने विद्यालय में पढ़ने वाले हर बच्चे के माता-पिता और दुनियां के भी हर मां-बाप से हाथ जोड़कर निवेदन करती हूं कि बेटी बेटा में कभी भी भेद भाव ना करें, बेटी कुल का दीपक ना सही पर “आंगन के फूल “जरूर होती है। बेटी से भी खानदान बढ़ेगा, मां-बाप का नाम रोशन होगा, बेटी को बोझ नहीं वरदान समझें, दूसरों की अमानत नहीं अपना अभिमान समझें ,बेटी हीं महकाती है घर परिवार और आंगन को ,जहां भी जाती है बेटी महका देती है उस प्रांगण को ……।

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रचनाकार

Author

  • अरुण आनंद

    कुर्साकांटा, अररिया, बिहार. Copyright@अरुण आनंद/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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