भूल गया अब याद नहीं कुछ
मानव को जीवन में
अर्थ-अर्थ की दौड़ लगी है
जीवन के प्रांगण में
भूल रहा मानव मानवता
अर्थ-स्वार्थ-चिंतन में
तोड़ रहा सब रिश्ते-नाते
बंधा अर्थ के आलिंगन में
हो रहा पृथक है अपनों से
बिठा परायों को घर में
जग-रीति का ज्ञान नहीं
‘चाणक्य’ बना फिरता मन में
ऊपर से सब भोले-भाले
छिपा चोर सबके मन में
बात करेंगे प्यारी-प्यारी
खंजर पर उनके मन में
साथ रहेंगे सदा परन्तु
कुटिल भावना है मन में
परोपकार का करेंगे दावा
लगे स्वहित के साधन में
कह गए संत, सुवेद लिखा है
कोई नहीं अपना जग में ||
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