‘‘प्राचीन भारतीय समाज में स्त्री की अर्धगत अस्तित्व’’

परिचयः-

अनादिकाल से ही पुरूषवादी समाजिक व्यवस्था में स्त्री को दोयम दर्जा प्राप्त हैं। यूँ तो प्रकृति ने स्त्री-पुरूष को समान बनाया, परंतु पुरूषों ने सदैव परंपरा, मर्यादा, धर्म, संस्कार आदि समाजिक मूल्यों का हवाला देकर स्त्री को मुख्य धारा से धकेल कर बहिष्कृत कर दिया। यद्यपि स्त्री परिवार रूपी भवन में नींव का कार्य करती है, जो पूरे परिवार को प्यार व विश्वास के अटूट बन्धन से बांधकर रखती हैं, तथापि स्त्री जीवनपर्यंत आर्थिक पर निर्भरता का दंश भोगती रह जाती है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका सिमोन द बोअवार कहती है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।वास्तव में हमारे समाज के पास एक फर्मा है, जिसमें बचपन से ठोक-पीट कर स्त्री में स्त्रीपन भरने की अनवरत चेष्टा की जाती है। उसे बताया जाता है कि स्त्री को तीन पुरूषों के संरक्षण में ही अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। बचपन में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र की सेवा ही उसका मूल धर्म है। ऐसी स्थिति में परिवार के तमाम चीजों पर मालिकाना हक पुरूषों का हो जाता है। जीवनपर्यंत दिन-रात खटने वाले स्त्री कभी सोच भी नहीं पाती कि आखिरकार वह क्यों और किसलिए इतना मेहनत- मशक्कत कर रही हैं। सारी संपत्ति कभी पिता का होता है, कभी पति का तो कभी पुत्र का। सुबह से रात का अपने दायित्वों को बड़ी तल्लीनता से निभाने वाली स्त्री को चंद पैसों के लिए हाथ फैलाना पड़ता है। इस संबंध रोमिला थापर ने ठीक ही कहा है कि, ‘जिस दिन स्त्री के श्रम का हिसाब किया जाएगा, उस दिन इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी।आज, जबकि अर्थयुग है स्त्री के श्रम का हिसाब होनी ही चाहिए। उसे पुरूषों की भाँति संपत्ति का मलिकाना हक मिलना ही चाहिए। स्त्री तब-तक अपनी स्वाधीनता की लड़ाई में विफल रहेगी, जब-तक वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हो सकेगी। इतिहास के किसी भी काल-खण्ड में समाज में अर्थतंत्र का महत्त्व बहुत अधिक रहा है। इस दृष्टि से स्त्री के लिए उनकी निजी संपत्ति अर्थात् जिसे स्मृतिकारों ने स्त्रीधन कहा है स्त्री के लिए अधिक मायने रखती है।

प्राचीन काल में स्त्री को स्वंय चल-संपत्ति माना जाता था और उसे उपहार में दिया जाता था। पति का अपनी पत्नी के ऊपर पूर्ण अधिकार होता था। ऋग्वेदतथा महाभारतके कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि स्त्री को धूत क्रीड़ा के समय दाँव पर रख दिया जाता था। युधिष्ठिर ने इसी अधिकार से द्रौपदी को दाँव पर लगया था। यद्यपि पति का पत्नी के शरीर पर पूरा अधिकार और वह उसे अपनी इच्छानुसार उपहार में दे सकता था, तथापि व्यवहारिक रूप से समाज में इसे निन्दनीय माना गया था। स्वयं महाभारत के प्रकरणों से स्पष्ट होता है कि युधिष्ठिर के कार्य का सभासदों द्वारा कड़ा प्रतिवाद किया गया था।1 अतः उपयुक्त उद्धरण से स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि जहाँ प्राचीन भारतीय समाज स्त्री को संपत्ति अर्थात् चल-संपत्ति से संबोधित करते हैं तो फिर उन्हें संपत्ति संबंधी अधिकार प्रदान हो यह प्रश्न ही नहीं उठता। य़द्यपि वैदिक कालीन ग्रामीण व धार्मिक व्यवस्था में स्त्री को सम्मानजनक स्थान दिया गया था तथा पति और पत्नी दोनों को संपत्ति का संयुक्त स्वामी समझा जाता था। विवाह के अवसर पर पति यह प्रतिज्ञा करता था कि वह आर्थिक मामलों में अपनी पत्नी के अधिकारों तथा हितों की उपेक्षा नहीं करेगा, किंतु व्यवहारिक रूप से धन को स्वतंत्र रूप से उपभोग करने का अधिकार पुरूषों के पास ही था।

प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रारंभिक सामाजिक मूल्यों से संबद्ध स्पष्ट साक्ष्य वैदिक सभ्यता से प्राप्त होते हैं। वेदों के अध्ययन से यह परिलक्षित होता है कि प्राचीन भारतीय समाज में गृहस्थ आश्रम का प्रारंभ एवं सफल संचालन के लिए विवाह संस्कार का महत्व सर्वोपरि था। अतएव विवाह एक सर्वव्यापी और सार्वभौम परंपरा है जो प्रायः प्रत्येक काल एवं समाज में विद्यमान रही है और वर्तमान में भी है। हालाँकि उसके स्वरूप प्रायः परिवर्तित होते रहे हैं। मनुष्य की यौन और संतानोत्पत्ति की मूल प्रवृत्ति की संतुष्टि के साथ-साथ वंश, कुल और परिवार की निरंतरता भी विवाह संस्कार से बनी रही है।2 विवाह संस्कार के दौरान कन्याको वधुपक्ष एवं वरपक्ष द्वारा दिया जाने वाला उपहार को ही सामान्यतया स्त्रीधनकी संज्ञा दी गई है। स्त्रीधन का निहितार्थ परिवार की पैतृक संपत्ति से भिन्न, उस अविच्छेद्य अधिकार से है, जिसपर स्त्री अपने पति से सम्बन्ध विच्छेद के पश्चात भी निर्भीक रूप से दावा कर सकती है। इस प्रकार स्त्रीधन का तात्पर्य स्त्री की स्वयं की संपत्तिसे है, जिसपर उसका पूर्ण स्वामित्व हो। प्राचीन कालीन भारतीय समाज में स्त्रीधन नारी की सामरिक दशा को इंगित करती है, जो उसकी विभिन्न अवस्थाओं से आबद्ध है। स्त्रीधन का विहंगावलोकन तभी संभव है जब हम इससे जुड़े तीन तथ्यों-स्त्रीधन क्या है, स्त्रीधन पर स्त्री का अधिपत्य एवं स्त्रीधन के उत्तराधिकार से जुड़े पहलुओं की विशद व्याख्या करें।

प्राचीन कालीन पुरूष प्रधान समाज जहाँ अपने व्यक्तिगत संपत्ति पर अवलंबित ठेठ पितृसत्तात्मक प्रवृति के कारण स्त्री को अचल संपित्त में अधिकार प्रदान नहीं करते थे।3 इस दृष्टि से स्त्रीधन जिसका दायरा यद्यपि सीमित था, तथापि स्त्री की विविध सामरिक परिस्थितियों के लिए काफी अभिप्राय रखती थी। स्त्रीधन का प्रथम प्रयोग अग्निवेश्यगृहसूत्रमें कन्यादान के संदर्भ में किया गया था। स्त्रीधन को परिभाषित करते हुए देवल स्मृति में कहा गया है कि वृत्ति, आभरण (आभूषण) शुल्क, लाभ अर्थात् अपने किसी क्रिया द्वारा प्राप्त लाभ ही स्त्रीधन है। कौटिल्य ने जीवन वृत्ति एवं आबध्य (जो शरीर में बांधा जा सके जैसे-आभूषण, जवाहरात आदि) को स्त्रीधन कहा है। महर्षि मनु ने स्त्रीधन के संदर्भ में विस्तृत विवेचना की है तथा इसके अंतर्गत 6 प्रकार की संपत्ति को निर्देशित किया हैः-

1. पिता द्वारा किसी भी समय दिये गए उपहार।

2. माता द्वारा दिये गये उपहार।

3. भाई द्वारा दिये गये उपहार।

4. पति या विवाहोपरांत दिये गये उपहार।

5. किसी अन्य द्वारा विवाह के समय दिये गये उपहार।

6. विवाह के पश्चात् किसी के द्वारा भी प्रदत्त उपहार।4

याज्ञवल्क्य ने स्त्रीधन का स्पष्टीकरण करते हुए उक्त वक्तव्य प्रस्तुत किऐ-पिता -माता, पति या भ्राता द्वारा प्रदत्त या जो कुछ विवाह-अग्नि के समक्ष प्राप्त होता है या पति द्वारा अन्य स्त्री से विवाह के समय जो कुछ प्राप्त किया जाए- ये ही स्त्रीधन में गिने जाते है और इसमें जो कुछ स्त्री के सम्बन्धियों द्वारा दिया जाता है शूल्क एवं विवाहोपरांत की भेट भी शामिल है। स्त्रीधन के संदर्भ में विस्तारपूर्वक तथ्यानुसंधान कात्यायन ने 27 श्लोकों के माध्यम से किया, जिसमें मनु, नारद, विष्णु एवं याज्ञवलक्य के स्त्रीधन से संबंधित विचार भी समाहित है। इनके अनुसार विवाह के समय अग्नि के समक्ष जो दिया जाता है, उसे अध्यग्नि स्त्रीधनकहते है। पति के घर जाते समय जो कुछ स्त्री पिता के घर से पाती है उसे अध्यावहनिक स्त्रीधनकहा जाता है। श्वसुर या सास द्वारा जो कुछ दिया जाता है और श्रेष्ठ जनों को वन्दन करते समय उनके द्वारा प्राप्त होता है उसे प्रीतिदत्त स्त्रीधनकहते हैं। वह शुल्क कहलाता है जो बरतन, भारवाही, दुधारू पशुओं, पशुओं, आभूषणों एवं दासों के मूल्य के रूप में प्राप्त होता है। विवाहोपरांत पति-कुल एवं पितृ-कुल के बन्धु-जनों से जो प्राप्त होता है वह अन्वाधेय कहलाता है। कात्यायन ने अध्यग्नि एवं अध्यावहनिक स्त्रीधन वे भेंट भी सम्मलित की है जो विवाह के समय आगन्तुकों द्वारा प्रदत्त की जाती है। वह संपत्ति सौदायिक की श्रेणी में कात्यायन द्वारा रखी गयी है, जो विवाहित स्त्री या कुमारी को अपने पति या पिता के घर में मिल जाता है या भाई से या माता-पिता से प्राप्त होता है।5 इस प्रकार कात्यायन द्वारा स्त्रीधन के सम्बन्ध में दी गई निर्दिष्ट विवरण स्त्रीधन के विविध स्वरूप को परिलक्षित करती है। स्त्रीधन के अंर्तग्त विवादचिन्तामणि ने द्विरागमन के समय प्राप्त धन को भी रखा है। महर्षि व्यायस ने तो स्त्रीधन को कन्या को अपने पति के घर जाने के लिए एक प्रालोभन या प्रेरित कारक माना है। इतिहासकार अल्टेकर महोदय ने इस संबंध में यह वक्तव्य दिये हैं कि स्त्रीधन का विकास कन्या मूल्य (शुल्क) से हुआ जो असुर विवाह के अंतर्गत वर, कन्या के पिता को प्रदान करते थे। पुत्री के प्रति स्नेह के कारण माता-पिता उसे शुल्क का अंश अथवा कभी-कभी संपूर्ण भाग देते थे, ताकि वह स्वतंत्र रूप से उसका उपयोग कर सके। यदि कन्या की मृत्यु हो जाती और उसकी कोई सन्तान नहीं हो तो उस दशा में संपूर्ण शुल्क उसके पिता अथवा भाई को वापस किये जाने का विधान था। जहाँ कन्या मूल्य नहीं दिया जाता था वहाँ विवाह के समय कन्या कुछ उपहार प्राप्त करती थ, जिसकी वह स्वामिनी होती थी। वैदिक साहित्य में इसके लिए परिणाह्य शब्द मिलता है। इन उपहारों में बहुमूल्य वस्त्राभूषण हुआ करते थे, जिन्हें कन्या ही धारण करती थी। कलांतर में कन्या द्वारा विवाह के उपरांत प्राप्त उपहारों को भी स्त्रीधन के अंतर्गत सम्मलित कर लिया गया।6जीमूतवाहनने अपनी रचना दायभागमें मंतव्य दिया है कि वही संपत्ति स्त्रीधन है, जिसका पति के साथ रहते हुए पत्नी दान, विक्रय एवं भोग कर सकती है।स्त्रीधन के लिए सनातन शास्त्रों, धर्मशास्त्रों, वैदिक संहिताओं तथा संस्कृत ग्रंथों में कई शब्द आए हैं- वहतु, यौतक तथा दायात।

उक्त परिभाषाओं के समाकलन के आधार पर व्यक्त होता है कि विवाह के समय स्त्री को उसके माता-पिता, परिजनों, संबंधियों आदि से प्राप्त चलसंपति स्त्रीधन के अंतर्गत आते है। यह निहतार्थ है कि स्त्रीधन का संबंध निर्वाध रूप से विवाहोपरांत उपहार से है जो प्रायः सभी युगों में विद्यमान थी। वैदिक साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है। बौद्धकाल में भी यह प्रथा प्रचलित थी। धम्मपदटीका में श्रावस्ती के श्रेष्ठी मीगार की कथा में इसका वर्णन है।7 बौद्धग्रंथों में स्त्रीधन के लिए नहान-चुन्न मूल्यशब्द दिया गया है। प्रारंभ में स्त्रीधन के श्रेणी में 6 प्रकार के संपत्ति की ही गणना होती थी, पंरतु आगे चलकर इसके प्रकारों में वृद्धि होती गई तथा कात्यायन के समय इसमें सभी प्रकार की संपति (चल-अचल) सम्मलित हो गयी, जिसे स्त्री अविवाहिता के रूप में या विवाहिता के रूप में पति एवं उसके कुल से प्राप्त करती है। टिकाकार मिताक्षरा ने स्त्रीधन के तहत किसी पुरूष की विधवा की हैसियत से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त या माता के रूप में प्राप्त या पत्नी या माता की हैसियत से विभाजन द्वारा प्राप्त संपदा को भी समाहित किया है, परंतु मिताक्षरा के मतंव्य को दायभाग (जीमूतवाहन) व स्मृतिचन्द्रिकाने स्वीकृत नहीं किया। दायभाग के अनुसार वह धन जो स्त्री द्वारा उत्तराधिकार या विभाजन या अन्य लोगों से भेंट के रूप में या शिल्प आदि कर्मों या परिश्रम से प्राप्त किया है, वह स्त्रीधन नहीं कहलाता है। विष्णु ने स्त्रीधन में तीन अन्य प्रकार के धन को सम्मलित कर दिया, अर्थात् विवाह के बाद पुत्र द्वारा दिया गया उपहार, अन्य सम्बंधियों द्वारा दिए गए उपहार और निर्वाह के लिए दिया गया धन।8 इस प्रकार हिन्दू धर्मशास्त्र के अनेक प्रसंगों में जहाँ स्त्री और संपित्त का उल्लेख एक ही कोटि में हुआ है, तथा स्त्री समकालीन समाज में स्वयं संपत्ति के रूप में परोसी जाती हो, वैसे अर्थतंत्र-युग में स्त्रीधन स्त्री के लिए काफी मायने रखती है जो उसके संकटावस्था में सुरक्षा प्रदान करती है। स्त्रीधन का तारतम्य दहेज से कदापि नहीं लगाया जा सकता है। दोनों के आश्य अलग-अलग है। जहाँ स्त्रीधन का निर्वाध संबंध सम्मान व स्वेच्छा से जुड़ा है, वही दहेज का निहितार्थ बाध्यता से है। विवाह के समय या विवाह के पश्चात् महिला के माता-पिता के द्वारा वर पक्ष को जो नगद राशि व सामान दिया जाता है वह दहेज की श्रेणी में आता है, जबकि स्त्रीधन का सीधा सम्बन्ध उपहार से है। दहेज पर स्त्री का पूर्ण अधिकार नहीं होता है, बल्कि इसका संपूर्ण उपभोग वर अथवा उसके परिवार वाले करते है, जबकि स्त्रीधन का पूर्ण स्वामित्व स्त्री के पास होता है। स्त्रीधन में स्त्री द्वारा कमाई हुई, धनराशि सम्मलित नहीं की जाती थी, क्योंकि धर्मशास्त्रकारों का मंतव्य था कि पति-पत्नी दोनों की आय परिवार पर खर्च की जानी चाहिए। कात्यायन ने अपने वयक्तव्यों में अचल संपति को स्त्रीधन नहीं माना है परंतु वृहस्पति ने भू-भाग को भी स्त्रीधन के तहत सम्मलित किये जाने की अनुशंसा की।

अर्थतंत्र सदा से शक्ति का अन्धअनुगामी रहा है। यह सामाजिक प्राणी के जीवन में कितना महत्त्व रखती है, यह सर्वमान्य है। इसकी उच्छृखल बहुलता में जितने दोष हैं वे यद्यपि अस्वीकार नहीं किये जा सकते, परंतु इसके नितान्त अभाव में जो अभिशाप है, वो भी उपेक्षणीय नहीं है। विवश आर्थिक पराधीनता अज्ञात रूप में व्यक्ति के मानसिक तथा अन्य विकास पर ऐसा प्रभाव डालती रहती है, जो सूक्ष्म होने पर भी व्यापक तथा परिणामतः आत्मविश्वास के लिए विष के समान है। दीर्घकाल का दासत्व जैसे जीवन की स्फूर्तिमती स्वच्छन्दता नष्ट करके उसे बोझिल बना देता है, निरन्तर आर्थिक परवशता भी जीवन में उसी प्रकार प्रेरणा-शून्यता उत्पन्न कर देती है। किसी भी सामाजिक प्राणी के लिए ऐसी स्थिति अभिशाप है जिसमें वह स्वावलम्बन का भाव भूलने लगे, क्योंकि इसके अभाव में वह अपने सामाजिक व्यक्तित्व की रक्षा नही ंकर सकता है।9 पितृसत्तात्मक समाज के संपोषकों ने जहाँ एक ओर सामाजिक व्यवस्थाओं में स्त्री को अधिकार देने में पुरूषों की सुविधा का विशेष ध्यान रखा तो वहीं दूसरी ओर उनकी अर्थिक स्थिति भी परावलंबन से रहित नहीं रही।10 स्त्री, पुत्री, पत्नी, माता आदि सभी रूपों में आर्थिक दृष्टि से प्रायः परमुख्यापेक्षिणी रहती है, यह सर्वकालिक सत्य है। वस्तुतः आदिम युग से सभ्यता के विकास तक स्त्री सुख साधनों में गिनी जाती रही है। अतः इस परिवेश में स्त्री का अर्थतंत्र से सरोकार रखना, चाहे भले ही उसका स्वरूप छोटा ही क्यों न हो स्त्रियों के लिए काफी मायने रखती है। वास्तव में स्त्रियों के साम्पत्तिक विषयक अधिकार का अनवरत सरोकार स्त्रियों के वैधानिक अधिकार से है। ये संपत्ति से संबंधित स्वत्व विभिन्न कालक्रमों में स्त्री की स्थिति को परिवर्तित करते रहे हैं। स्त्रीधन का चिरस्थायी संबंध स्त्रियों के साम्पत्तिक विषयक अधिकार से है, जिसके तार प्राचीन इतिहास के सभी कालक्रमों से जुड़े है। स्त्रीधन का अस्तित्व वैदिक सभ्यता से लेकर बौद्धयुग, मौर्ययुग, गुप्तयुग, गुप्तोत्तरयुग तथा मध्यकाल एवं आधुनिक काल में भी किसी न किसी रूप में भारतीय समाज में विद्यमान रही है, हालांकि इसके स्वरूप में परिवर्तन तत्कालीन समयानुसार प्रायः होते रहे हैं। वैदिककाल में विवाह के समय प्राप्त धन, वस्त्राभूषण के अलावा गृहस्थ आश्रम के लिए आवश्यक वस्तुएँ जो कन्या को पितृपक्ष द्वारा सुखी जीवनयापन हेतु प्रदान किया जाता था, स्त्रीधन के अंतर्गत आते थे। उत्तरवैदिक काल में स्त्रीधन का अस्तित्व पूर्ववत बना रहा। स्त्रियाँ विवाह के अवसर पर अपने पिता से स्त्रीधन के रूपमें अतुल धन-संपत्ति करती थी। धर्मसूत्रकार भी स्त्रियों के संपत्ति विषयक अधिकार के हिमायती थे। वशिष्ठ, आपस्तम्ब तथा बौधायन ने भी इसका समर्थन किया है। बौधायन ने पति द्वारा पत्नी को उपहार स्वरूप प्रदान किये गये धन, विवाह के समय मिले धन, भेटों एवं अलंकारादि को स्त्रीधन के अंतर्गत सम्मिलित करते हुए इसपर स्त्री के अधिकारों की घोषणा की है। महाकाव्य युग में स्त्रीधन का अस्तित्व पूर्ववत् ही बना रहा। स्त्रियाँ अपने परिवार जनों से समय-समय पर जो वस्त्राभूषण, धनादि प्राप्त करती थी, जो स्त्रीधन की श्रेणी में आता था। महाभारत में कहा गया है कि स्त्री का पति स्त्री को स्त्रीधन के रूप में तीन सहस्र मुद्रा प्रदान करता था, जिसका उपयोग वह अपनी आजीविका चलाने के लिये करती थी। बौद्धयुग में स्त्रीधन का उल्लेख स्त्री की पृथक सम्पत्ति के रूप में हुआ है। बौद्ध ग्रंथों में वर्णित अनेक प्रसंगों से यह विदित होता है कि इस युग में स्त्रीधन का अत्यंत विकसित स्वरूप दृष्टिगोचर हुए।

मौर्ययुग में स्त्रीधन के स्वरूप का अधिक विस्तार हुआ। विष्णुगुप्त ने स्त्रीधन के अंतर्गत जीवन निर्वाह के साधन तथा आबंध्य अर्थात् आभूषणादि नामक दो प्रकार के स्त्रीधन का वर्णन किया है जिसमें जीवन निर्वाह हेतु सीमा का निर्धारण दो हजार पण तक की संपत्ति को किया है परंतु वही आभूषण की मात्रा निश्चित नहीं थी, बल्कि स्वेच्छा पर निर्भर था। गुप्तयुग में स्त्रीधन के क्षेत्र में अत्यधिक विस्तार हुआ। टीकाकारों जैसे-विज्ञानेश्वर एवं जीमूतवाहन् ने इस संबंध में महत्त्वपूर्ण विचार दिए। विज्ञानेश्वर ने इसके अंतर्गत उत्तराधिकार में पिता से प्राप्त संपत्ति, खरीदी हुई या बटँवारे में मिली संपत्ति, ऐसी संपत्ति जिस पर अधिक समय तक अधिकार रहनें के कारण स्वामित्व प्राप्त हो गया हो तथा उपलब्धि में प्राप्त सम्पत्ति को भी स्त्रीधन के दायरे में रखा है। इस प्रकार प्राचीन भारतीय स्त्रियों के स्त्रीधन संबंधि अधिकार का विभिन्न कालक्रमों में विभिन्नता उनके परिवर्तित सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक के साथ-साथ सामरिक परिस्थितियों का परिचायक है। प्राचीन भारतीय स्त्रियों के अर्थतंत्र से संबंधित अधिकारों को परिवर्तित, विकसित एवं विघटित करने में वैदिक युग से लेकर गुप्तोत्तर युग तक की सामाजिक परिस्थितियाँ धर्मसूत्रकारों के विचार तथा तात्कालीन सामरिक तत्त्वों की प्रमुख भूमिका रही है।

स्त्रीधन पर अधिकार-

स्त्रीधन पर स्त्री के स्वामित्व एवं अधिकार से संबद्ध तथ्य मूलरूप से तीन बातों पर निर्भर करते हैं- संपत्ति प्राप्त करने का उद्गम, प्राप्ति के समय स्त्री की स्थिति (कुमारी है या अविवाहित है, सधवा है या विधवा) तथा वह संप्रदाय, जिसके अनुसार उसपर स्मृति-शासन होता है। स्त्रीधन पर स्त्री के अधिकार से संबंधित मुद्दों पर स्मृतिकार में अनेक मत दिये गये है। वस्तुतः इस संबंध में सभी का अलग-अलग वक्तव्य है। कात्यायन एवं नारद ने इस संबंध में विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है। स्त्रीधन से संबंधित संपत्ति को कलांतर में दो भाग कर दिये गये-सौदायिक और असौदायिक। सौदायिक स्त्रीधन के अंतर्गत माता-पिता अथवा पति द्वारा स्त्री को दिये गए उपहार जो उनके द्वारा स्वेच्छा से प्रदान किये जाते थे, रखे गये तथा इसपर उनका पूर्णरूपेण अधिकार प्रदान किया गया। शेष धन को असौदायिक स्त्रीधन की श्रेणी में रखा गया तथा इस धन के लिए अनिवार्य शर्त यह थी कि स्त्री केवल इस धन का उपयोग कर सकती थी, परंतु उसे बेच नहीं सकती थी।11 कात्यायन ने सौदायिक धन के संबंध में मत दिया है कि इस संपत्ति पर स्त्रियों का पूर्ण अधिकार प्राप्त है, क्योंकि यह उनके संबंधियों द्वारा इसलिए दिया गया है कि विपत्ति अथवा दुर्दिन के समय वे दुर्दशा को प्राप्त न हो सके। कात्यायन ने तो इस स्त्रीधन को बेचने तथा बंधक में भी रखने का विचार व्यक्त किये हैं इतना ही नहीं इनका कथन था कि सौदायिक अचल संपत्ति पर भी उनका अधिकार है। विधवा हो जाने पर वे पति द्वारा दी गयी चल भेंटों को मनोनकूल खर्च कर सकती है, किंतु उन्हें जीवित रहते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिये या वे कुल के लिए व्यय कर सकती है किन्तु पति या पुत्र और पिता या भाईयों को किसी स्त्री के स्त्रीधन को व्यय करने या विघटित करने का अधिकार नहीं है।12 इस प्रकार कात्ययन के कथन यह स्पष्ट करते हैं कि स्त्री सभी प्रकार के स्त्रीधन का उपभोग मनोनकूल कर सकती है, विधवा स्त्री पति द्वारा प्रदत्त अचल संपत्ति को छोड़कर सभी प्रकार के स्त्रीधन का लेन-देन कर सकती है, किन्तु सधवा स्त्री केवल सौदायिक (पति को छोड़कर अन्य लोगों से प्राप्त दान) को ही मनोनकूल स्वेच्छा से व्यय कर सकती है। पति के रहते स्त्री का अधिकार स्त्रीधन की विशेषता पर निर्भर करता है। यदि वह सौदायिक है तो उसे स्त्री विक्रय, दान या स्वेच्छा से बिना पति के सहमति के विघटित कर सकती है, किंतु शिल्प आदि से प्राप्त धन तथा अन्य लोगों से प्राप्त दान-भेट आदि स्त्रीधन के अन्य प्रकार बिना पति की आज्ञा के वह नहीं दे सकती। जीमूतवाहन के दायभाग में वर्णित है कि शिल्पादि से प्राप्त धन या अन्य लोगों से प्राप्त भेंट-दान पति के जीवित रहते पति के अधिकार में रहते है और पति उनका उपभोग विपत्ति में न रहने पर भी कर सकता है। ऐसे धन पर पति के अतिरिक्त किसी अन्य का अधिकार नहीं होता। पति की मृत्यु के पश्चात ही स्त्री असौदायिक स्त्रीधन को स्वेच्छा से व्यय कर सकती है। मनु का कथन है कि पत्नी को बिना पति की अनुमति के अपनी स्त्रीधन की संपत्ति का कोई भाग किसी को देना नहीं चाहिए।13 स्त्रीधन पर अधिकार के संबंध में याज्ञवल्क्य का कथन है कि दुर्भिक्ष, धर्मकार्य, व्याधि में या बन्दी बनाये जाने पर पति यदि स्त्रीधन का व्यय करे तो उसे लौटाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।’’ काव्यायन व कौटिल्य ने भी इस मत का समर्थन किया है। स्पष्ट है कि स्त्री के अलावा स्त्रीधन का उपयोग पति या, पुत्र, माता-पिता एवं भाई के द्वारा केवल दुखद परिस्थिति में किया जा सकता है। कात्यायन ने इस संबंध में नियम दिया है कि ‘‘यदि पति स्त्रीधन देने की प्रतिज्ञा कर ले तो उसे स्त्रीधन लौटाना चाहिए। यदि उसकी मृत्यु लौटाने से पूर्व ही हो गयी हो तो पुत्र को उसे ऋण के रूप में चुकाना चाहिये, किंतु ऐसा तभी संभव होगा, जबकि विधवा पति के कुल में ही रहे और अपने पिता के घर न जाए। स्मृतिचन्द्रिा एवं व्यवहार प्रकाशने भी कहा है कि पौत्रों एवं प्रपौत्रों को भी इस प्रकार पितामह एवं प्रपितामह द्वारा प्रतिश्रुत स्त्रीधन ऋण के रूप में लौटाना चाहिए। यदि स्त्री दुश्चरित्र, व्यभिचार में धन का अपव्यय करती है तो उसका स्त्रीधन छीन लेना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि हिन्दूशास्त्रकार प्रायः इस मत के समर्थक थे कि स्त्रीधन पर स्त्री का पूर्ण अधिकार था परंतु अचल सम्पति को बेचन के अधिकार के विषय में प्रायः उनका एक एकमत नहीं था।

स्त्रीधन का उत्तराधिकार:-

स्त्रीधन के उत्तराधिकार के संबंध में हिन्दु व्यवहारशास्त्र में कई मतान्तर पाये जाते है परंतु सबका मूल प्राकथन यह है कि स्त्रीधन के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में पुत्रियों को ही विशेष वरीयता देनी चाहिए। इस संदर्भ में कुमारी कन्याओं को सर्वप्रथम रखा जाता था तथा विवाहितों में जो निर्धन होती थी, उसे तरजीह मिलती थी। इस सम्बन्ध में महर्षि मनु का कथन है कि स्त्री के मृत्यु हो जाने पर सगे भाई एवं बहिनें उसकी संपत्ति समान रूप से बाँट लेते हैं स्नेहानुकुल उन पुत्रियों की पुत्रियों (नातिन) को भी मिलना चाहिए। मनु ने इस सम्बन्ध में यह व्यवस्था दी है कि जब स्त्री ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य एवं गांधर्व नामक विवाह के प्रकार से विवाहित होती है और सन्तानहीन मर जाती है तो स्त्रीधन पति को मिल जाता है, किन्तु यदि उसका विवाह असुर या अन्य दो विवाह-प्रथाओं के अनुसार होता है तो सन्तानहीन होने पर उसका धन उसके माता-पिता को मिल जाता है।14 तात्पर्य है कि स्त्रीधन की प्रथम उत्तराधिकारी कन्याएँ ही होती है उनके अभाव में पुत्रों का अधिकार होता है, किन्तु यदि स्त्री, संतानहीन मर जाती है तो स्त्रीधन पति को मिल जाता है। महर्षि मनु के कथन की संपुष्टि विष्णु एवं नारद भी करते है। मिताक्षरा के कथानानुसार पुत्री में पुत्र की अपेक्षा माता के शरीर का अंश अधिक रहता है। अतः उसे स्त्रीधन की प्राप्ति में वरियता मिलती है, साथ ही पुत्र अपने पिता की संपत्ति में अपने वहन को उत्तराधिकार से वंचित रखते है तो संभव है कि स्त्रीधन की प्राप्ति में सिर्फ पुत्री को ही वरीयता मिलनी चाहिये। स्त्रीधन के उत्तराधिकार के संबंध में वरीयता क्रम का विवरण मिताक्षरा में कुछ इस प्रकार दिया गया है-(प) कुमारी कन्या (पप) निर्धन विवाहित पुत्री (पपप) धनी विवाहित पुत्री (पअ) पुत्री की कन्याएँ (अ) पुत्री का पुत्र (अप) सव पुत्र (अपप) पौत्र (अपपप) पति (यदि स्त्री का विवाह अनुमोदित चार विवाह प्रकारों में हुआ हो)(पग) सन्निकटता के अनुसार पति के सपिण्ड पति के सपिण्ड के अभाव में माता, तब पिता और पिता के सपिण्डा किन्तु यदि विवाह किसी अननुमोदित विवाह प्रकार में हुआ है तो सन्तानों के अभाव में स्त्रीधन माता को मिलता है, माता के अभाव में पिता को, पिता के अभाव में उसके निकटतम सपिण्डों को क्रम से मिलता है। पिता के सपिण्डों के अभाव में स्त्री के पति को तथा पति के अभाव में पति के सपिण्डों को मिलता है।15 स्त्रीधन के उत्तराधिकार का विस्तृत विवेचन काव्यायन द्वारा प्रस्तुत किया गया है, उनका कथन था कि ‘‘सधवा बहिनों को भाइयों के साथ स्त्रीधन का भाग लेना चाहिये, यहीं स्त्रीधन एवं विभाजन के विषय में कानून है। पुत्रियों के अभाव में पुत्रों को स्त्रीधन मिलता है। संबंधियों द्वारा प्रदत्त उनके संबंधियों के अभाव में पति को मिलता है। जो कुछ अचल संपत्ति माता-पिता द्वारा पुत्री को दी जाती है वह उसकी मृत्यु के उपरांत सन्तान के अभाव में भाई की हो जाती है। आसुर से लेकर आगे के विवाहों वाली स्त्री को माता-पिता द्वारा जो कुछ प्राप्त होता है वह उसके संतानहीन होने पर माता-पिता को मिल जाता है।16

इस प्रकार विभिन्न स्मृतिकारों द्वारा उपस्थापित मंतव्यों के आधार पर स्पष्टतः कहा जा सकता है कि स्त्रीधन की प्रथम उत्तराधिकारणी कन्याएँ ही होती है, उनके अभाव में पुत्र, पति, माता-पिता या उनके सपिण्डों को प्रदान किया जाता है। प्रारंभ में स्त्रीधन पर प्रथम अधिकार पुत्री को ही प्रदान किया गया था, जो पूर्व निश्चित था परंतु ज्यों-ज्यों स्त्रीधन का दायरा बढ़ता गया तत्पश्चात समाज के व्यवस्थाकारों द्वारा स्त्रीधन के विभाजन में पुत्री के साथ-साथ पति व पुत्र का समावेशन किया परंतु बावजूद इसके कुवाँारी कन्या को भी प्रधानता दी गई। जो स्त्रियाँ व्याभिचारिणी, अपवित्र एवं अच्छे आचरण वाली नहीं थी, उन्हें स्त्रीधन से वंचित कर देने का विधान प्रायः सभी शास्त्रकारों ने दिया।

उपर्युक्त तथ्यों के वर्णन-विवचेन के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि स्त्रीधन का आशय स्त्री की पूर्ण स्वामित्व वाली संपति से है अर्थात् वे धन जिसकी वास्तविक स्वामिनी स्त्रियाँ हैस्त्रीधन कहलाता है। स्त्रीधन का निर्वाध सम्बन्ध कन्यादानया विवाह संस्कारके संदर्भ से है तात्पर्य है कि यह धन कन्या को विवाह के दौरान उनके माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबंधियों द्वारा उपहार स्वरूप प्रदान किये जाते हैं। प्रांरभ में स्त्रीधन का दायरा सीमित था तथा इसमें विवाह के दौरान प्रदान किये जाने वाले उपहार जैसे-वस्त्र, आभूषणादि ही आते थे, किन्तु बाद में विवाहोपरांत स्त्री को वर पक्ष तथा पितृ पक्ष से समय-समय पर प्राप्त होने वाले अर्थ के साथ-साथ अचल संपति को भी शामिल कर दिया गया, जिससे स्त्रीधन पे अधिकार एवं उत्तराधिकार को लेकर कई विचार उत्पन्न हुए परंतु इसमें प्रथम प्राथमिकताएँ कुँवारी कन्याओं को ही दिया गया। वर्तमान समय में भी समकालीन सामरिक व्यवस्था में समाज में स्त्रीधन देने की प्रथा विद्यमान है, परंतु वाणिज्यवादी व्यवस्था से सरोकार रखने वाला सामाजिक मूल्यों के कारण इसका स्वरूप अब विकृत हो चुका है। उपहार अथवा स्वेच्छा से दिया जाने वाले यह धन अब बाध्यता का रूप लेकर दहेज प्रथा की व्यवस्था में परिणत हुआ, जिसने समाज में स्त्री के अस्तित्व को ही झकझोर कर रख दिया। हालांकि धीरे-धीरे समय के साथ-साथ इसमें सुधार भी हो रहे है परंतु यह बाध्यता अभी तक समाज से समाप्त नही हुई हैं।

कुल मिलाकर कहें तो स्त्री-अस्मिता के सारे सवालों के केन्द्र में स्त्रीधन की समस्या है। आर्थिक रूप से विपन्न रहने के कारण वह अपने अधिकारों के लिए जोरदार आवाज नहीं उठा सकता है। इसलिए स्त्री-मुक्ति का राजमार्ग है-स्त्रीधन का स्वाधिकार। दूसरे के घर आंगन में रहकर दूसरों का खाना खाकर दूसरों का वस्त्र पहनकर स्वाधीनता की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। अतएव स्त्री जाति का अस्तित्वगत लड़ाई आर्थिक स्वत्व से ही संभव हो सकेगा।

संदर्भ-ग्रंथ-सूची

1.         प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, कृष्णचन्द्र श्रीवास्तव यूनाइटेड बूक डिपो, इलाहाबाद-2014, पृष्ठ सं0-183

2.         प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, कृष्ण चन्द्र श्रीवास्तव पृष्ठ सं0-102

3.         प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास, रामशरण शर्मा, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ सं0-63

4.         प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, कृष्णचन्द्र श्रीवास्तव, पृष्ठ सं0-184

5.         धर्मशास्त्र का इतिहास (द्वितीय भाग), मूल लेखक-भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ0 पाण्डुरड्ग वामन काणे, अनुवादक-अर्जुन चौबे काश्यप, सेण्ट्रल प्रेस (चौलवखी), लखनऊ 1673 पृष्ठ सं0-639

6.         हिन्दु समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया, डॉ देवी प्रसाद सिंह पृष्ठ सं0-198

7.         प्राचीन भारत (प्रारंभ से 1206 ई0 तक) सत्यकेतु विद्यालकर श्री सरस्वती सदन प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ सं0-166

8.         प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास, ओम प्रकाश, विश्व प्रकाशन 2001, नई दिल्ली, पृष्ठ सं0-231

9.         श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, लोकभारती पेपर बैक्स पृष्ठ सं0-89

10.       श्रंृखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा पृष्ठ सं0-86

11.       धर्मशास्त्र का इतिहास, भारतरत्न, महामहोपाध्याय, डॉ. पाण्डुरड्ग वामन काणे, सेण्ट्रल प्रेस लखनऊ पृष्ठ सं0-642

12.       धर्मशास्त्र का इतिहास, डॉ. पाण्डुरड्ग वामण काणे, पृष्ठ सं0-643

13.       प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास ओम प्रकाश, विश्व प्रकाशन, 2001, नई दिल्ली पृष्ठ सं0-232

14.       धर्मशास्त्र का इतिहास, भारत-रत्न, महामहोपाध्याय डॉ पाण्डुरड्ग वामण काणे, पृष्ठ सं0-643

15.       धर्मशास्त्र का इतिहास, भारत-रत्न, महामहोपाध्याय डॉ पाण्डुरड्ग वामण काणे, पृष्ठ सं0-645

16.       धर्मशास्त्र का इतिहास, भारत-रत्न, महामहोपाध्याय डॉ पाण्डुरड्ग वामण काणे, पृष्ठ सं0-644

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रचनाकार

Author

  • तुलसी कुमारी

    सहायक प्राध्यापिका (अतिथि), इतिहास विभाग, श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय सीतामढ़ी, बिहार./©तुलसी कुमारी

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