भारतीय सभ्यता, संस्कृति और साहित्य में पिता का स्थान सदैव आदरणीय, अनुकरणीय और पूजनीय रहा है। हमारे जीवन में पिता का स्थान सबसे ऊंचा है। महाभारत में युधिष्ठिर ने यक्ष के एक प्रश्न का जबाब देते हुए कहा है कि पिता का क़द आसमान से भी ऊंचा है। पिता से ही बच्चों की पहचान है। उनका प्रेम अनमोल होता है, माता पिता के आशीर्वाद से दुनिया की बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल की जा सकती है। कोई भी समस्या हो उसका समाधान पिता के पास होता है, बच्चों को पिता की महत्ता का पता तब चलता है जब वे स्वयं माता पिता बनते हैं। संसार के सारे रिश्ते निभाकर हमने ये जाना है की माता पिता के सिवाय कोई अपना नहीं होता जिसने भी इस सच को जान लिए वो बहुत ही खुशनसीब है और जो इस सच को जानते हुए भी अपनी आंखे बंध कर ली, इस दुनिया में उससे ज्यादा बदनसीब और कोई नहीं है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि,
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा, जे लंपट परधन परदारा।
मानहिं मातु पिता नहिं देवा, साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी, ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी, परम सभीत धरा अकुलानी॥
भारतीय सभ्यता, संस्कृति और पौराणिक साहित्य में माता-पिता और गुरु को जो सर्वोच्च स्थान और सम्मान दिया गया है, शायद उतना कहीं और किसी सभ्यता व संस्कृति में देखने को नहीं मिलेगा। हिन्दी साहित्य में ‘पिता’ को ‘जनक’, ‘तात’, ‘पितृ’, ‘बाप’, ‘प्रसवी’, ‘पितु’, ‘पालक’, आदि अनेक पर्यायवाची नामों से जाना जाता है। पौराणिक साहित्य में भगवान परशुरामजी, श्रवण कुमार, ब्रह्चारी भीष्म, मर्यादा पुरुषोत्तम राम आदि अनेक आदर्श चरित्र प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, जो एक पिता के प्रति पुत्र के अथाह प्रेम एवं समर्पण को सहज बयां करते हैं। वैदिक साहित्यों में ‘पिता’ के बारे में स्पष्ट तौर पर उल्लेखित किया गया है कि ‘पाति रक्षति इति पिता’ अर्थात जो रक्षा करता है, ‘पिता’ कहलाता है। यास्काचार्य प्रणीत निरूक्त के अनुसार, ‘पिता पाता वा पालयिता वा’, ‘पिता-गोपिता’ अर्थात ‘पालक’, ‘पोषक’ और ‘रक्षक’ को ‘पिता’ कहते हैं। महाभारत में ‘पिता’ की महिमा की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि,
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परम तपः।
पितरि प्रितिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवताः ।।
अर्थात ‘पिता’ ही धर्म है, ‘पिता’ स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। ‘पिता’ के प्रसन्न हो जाने से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसके साथ ही कहा गया है कि ‘पितु र्हि वचनं कुर्वन न कन्श्चितनाम हीयते’ अर्थात ‘पिता’ के वचन का पालन करने वाला दीन-हीन नहीं होता।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में पिता की सेवा करने व उसकी आज्ञा का पालन करने के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि
न तो धर्म चरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रुषा तस्य वा वचनक्रिपा।।
अर्थात, पिता की सेवा अथवा, उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।
हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व में पिता की महत्ता का बखान करते हुए कहा गया है:
दारूणे च पिता पुत्र नैव दारूणतां व्रजेत।
पुत्रार्थ पदःकष्टाः पितरः प्रान्पुवन्ति हि।।
अर्थात, पुत्र क्रूर स्वभाव का हो जाए तो भी पिता उसके प्रति निष्ठुर नहीं हो सकता, क्योंकि पुत्रों के लिए पिताओं को कितनी ही कष्टदायिनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं।
महाभारत में युधिष्ठर ने यज्ञ के एक सवाल के जवाब में आकाश से ऊँचा ‘पिता’ को कहा है और यक्ष ने उसे सही माना भी है। इसका अभिप्राय है कि पिता के हृदय-आकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अविस्मरणीय है।
पदमपुराण में माता-पिता की महत्ता को बड़े ही सुन्दर शब्दों में वर्णित किया गया है,
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात सर्वयत्रेन पुतयेत्।।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्त द्वीपा वसुंधरा।
जानुनी च करौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः।
निपतन्ति पृथ्वियां च सोअक्षयं लभते दिवम्।।
अर्थात, माता सभी तीर्थों और पिता सभी देवताओं का स्वरूप है। इसलिए सब तरह से माता-पिता का आदर सत्कार करना चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ घुटने और मस्तिष्क पृथ्वी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है। मनुस्मृति में महर्षि मनु भी पिता की असीम महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं:
उपाध्यान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्त्रं तु पितृन माता गौरवेणातिरिच्यते।।
अर्थात, दस उपाध्यायों से बढ़कर ‘आचार्य’, सौ आचार्यों से बढ़कर ‘पिता’ और एक हजार पिताओं से बढ़कर ‘माता’ गौरव में अधिक है, यानी बड़ी है।
‘पिता’ के बारे में मनुस्मृति में तो यहां तक कहा गया है कि, ‘‘पिता मूर्ति: प्रजापतेः।’’ अर्थात, पिता पालन करने से प्रजापति यानी राजा व ईश्वर का मूर्तिरूप है।
भारतीय सभ्यता, संस्कृति और वैदिक साहित्य में जोर देकर कहा गया है कि माता-पिता द्वारा जन्म पाकर ललित पालित होने के पश्चात बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब, माता-पिता के प्रति उसके कुछ कर्तव्य हो जाते हैं, जिसका उसे पालन करना चाहिए। वैदिक संस्कृति कहती है कि पुत्र का कर्तव्य है कि माता-पिता की आज्ञा का पालन करे। जो पुत्र माता-पिता एवं आचार्य का अनादर करता है, उसकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं, क्योंकि माता-पिता के ऋण से मुक्त होना असम्भव है। इसीलिए, माता-पिता तथा आचार्य की सेवा-सुश्रुषा ही श्रेष्ठ तप है। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि आज की युवा पीढ़ी अपने पथ से विचलित होकर अपनी प्राचीन भारतीय वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति को निरन्तर भुलाता चला जा रहा है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आज घर-घर में पिता-पुत्रों के बीच आपसी कटुता, वैमनस्ता और झगड़ा देखने को मिलता है। भौतिकवाद आधुनिक युवावर्ग के सिर चढ़कर बोल रहा है। उसके लिए संस्कृति और संस्कारों से बढ़कर सिर्फ निजी स्वार्थपूर्ति और पैसा ही रह गया है। इससे बड़ी विडम्बना का विषय और क्या हो सकता है कि एक ‘पिता’ अपने पुत्र के मुख से सिर्फ प्रेम व आदर के दो शब्द की उम्मीद करता है, लेकिन उसे पुत्र से उपेक्षित, तिरस्कृत और अभद्र आचरण के अलावा कुछ नहीं मिलता है। निःसन्देह, यह हमारी आधुनिक शिक्षा प़द्धति के अवमूल्यन का ही दुष्परिणाम है।
पौराणिक ग्रन्थ देवीभागवत में स्पष्ट तौर पर लिखा गया है कि,
धिक तं सुतं यः पितुरीप्सितार्थ,
क्षमोअपि सन्न प्रतिपादयेद यः।
जातेन किं तेन सुतेन कामं,
पितुर्न चिन्तां हि सतुद्धरेद यः।।
अर्थात, उस पुत्र को धिक्कार है, जो समर्थ होते हुए भी पिता के मनोरथ को पूर्ण करने में उद्यत नहीं होता। जो पिता की चिन्ता को दूर नहीं कर सकता, उस पुत्र के जन्म से क्या प्रयोजन है? इसी तरह गरूड़ पुराण में लिखा गया है कि,
सर्वसौख्यप्रदः पुत्रः पित्रोः प्रीतिविवद्धर्नः।
आत्मा वै जायते पुत्र इति वेदेषु निश्चितम्।।
अर्थात, पुत्र सब सुखों को देने वाला होता है, माता-पिता का आनंदवर्द्धक होता है। वेदों में ठीक ही कहा गया है कि आत्मा ही पुत्र के रूप में जन्म लेती है।
आज की युवा पीढ़ी को यह संकल्प लेना चाहिए कि सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप वे अपने पिता के प्रति सभी दायित्वों का पालन करने का हरसंभव प्रयास करेंगे और साथ ही महर्षि वेदव्यास द्वारा महाभारत के आदिपर्व में दिए गए ज्ञान का सहज अनुसरण करेंगे कि ‘जो माता-पिता की आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता है तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित व्यवहार करता है, वास्तव में वही पुत्र है।’ हमें हमेशा यह याद रखने की आवश्यकता है कि ‘‘देवतं हि पिता महत्।’’ अर्थात ‘पिता’ ही महान देवता है। वास्तव में पिता को भगवान तुल्य ही माना गया और माता को देवी तुल्य। इस संसार में पिता ही एकमात्र वह व्यक्ति है, जो यह चाहता है कि मैं जीवन में यदि किसी से हारूं तो वह मेरी अपनी संतान हो।
पिता के पगड़ी के साये में जो जीते है,
वही जीवन अमृत का प्याला पीते है,
जिसने छोड़ दिया सब-कुछ पिता के ऊपर,
वही इस दुनिया में बेफिक्र होकर जीते है।