सुख भी जीवन, दुःख भी जीवन
सुख में जो हँसी, दुःख में क्रंदन
सुख का श्रृंगार है – हास-विलास
सुख की शोभा- कामिनी-कंचन
दुःख की पहचान है- कातरता
बुँदे, बारिश, जल कोर-नयन
सुख में जो खुलकर हँसता था
मदिरा भर प्याले पीता था
जब देखो उसके चहरे पर
अर्थ का दर्प चमकता था
दुःख आते ही ऐसा टूटा
सबने मिलकर ऐसा लूटा
कि टूट गया वह अर्थ-दर्प
और छुट गई वह- प्याला-हँसी
अब नहीं साथ देती कामिनी
अब नहीं शोभा देता कंचन
व्यथित ह्रदय है, रुदित नयन ||
बही बसंत की प्रथम बयार
हुई बाग का वह श्रृंगार
आया यौवन का प्रथम वेग
महका गगन, यह चमन देख
भौंर खींचे चले आते हैं
मधु का लुत्फ़ उठाने को
पड़ती है जब यह स्वर्ण-किरण
भर जाती है चंचलता मन
जब देखो उस कली पर
दीख पड़ता एक कम्पित नर्तन
रस, रूप, गंध, निज रंगों से
सबको देती ज्यों- आमंत्रण
तभी निर्दय पतझड़ आई
मुरझाई सौन्दर्य-कली
सुख गई उसकी पतियाँ
हुआ गम रस, रूप, गंध
भौंरें अब नहीं आते हैं
दुसह दुःख भार उठाने को
कभी किरणें पड़ जाती हैं
उसका उपहास उड़ाने को
यह रूप है व्यर्थ दिखाने को
चंचलता उर भर जाने को
यह सोच अतीत के वैभव पर
करती है कली मूक क्रंदन
पर हँस कहता गगन-चमन
सुख भी जीवन, दुःख भी जीवन ||