पार जाना है
किनारे ही बैठ केवल कुलबुलाना है कि साथी पार जाना है ? है हवा प्रतिकूल,विस्तृत पाट,धारा भँवर वाली बधिर बाधाएँ- करें हम प्रार्थना या बकें
किनारे ही बैठ केवल कुलबुलाना है कि साथी पार जाना है ? है हवा प्रतिकूल,विस्तृत पाट,धारा भँवर वाली बधिर बाधाएँ- करें हम प्रार्थना या बकें
तुम्हारी याद जैसे घने जंगल में भटके हुए पिपासाकुल बटोही के कानों में बज उठे किसी निर्झर की आहट का जलतरंग ! तुम्हारी याद जैसे
छा गये आकाश में बरसात के बादल ! गरजते , नभ घेरते ये जलद कजरारे झूमते ज्यों मत्त कुंजर क्षितिज के द्वारे बजा देंगे हर
बेदर्दों को दर्द सुना कर,क्या होगा बहरों की महफ़िल में गा कर क्या होगा ! आस्तीन में जिसने पाला साँप यहाँ कहिए उस से हाथ
बाज़ारी आँधी में जीवन-मूल्य हुए तिनके ! बाहर- बाहर चमक-दमक भीतर गहराता तम दीमकज़दा चौखटों पर लटके परदे चमचम संवेदन-स्वर क्षीण-क्षीणतर खनक रहे सिक्के !
गोपाल सिंह ‘नेपाली’ उत्तर छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं | वे प्रेम,प्रकृति और राष्ट्रीयता की गीतिकाव्यधारा के विशिष्ट हस्ताक्षर हैं | इन्होंने आलोचकीय
हवा के शोर में संगीत सुनना छोड़ दूँ क्या ? जख्म है दिल में, तो जीना छोड़ दूँ क्या ? बेवफ़ाई तेरा फन , जो
किताब में फूल की सूखी पंखुड़ी मिली है। रास्ता मिलता रहा पर मंज़िले ,ना मिली है। तुम्हारे दरों दीवार को पहचानता हूं, तेरे चेहरे की
चांद निकला गगन में, हंसी चांदनी, तो मगन हो के धरती क्या हंसने लगी? माना हंसते हो कुछ पादप लता- संग बेला, चमेली, रातरानी भले,
शोणित था माँ का दूध नहीं था तुम्हें गर्भ में जो थी पिलाती लाने को दुनिया में तुमको सहा था माँ ने दर्द अपरिमित आये