दोहा

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दोहा

ग्यारह दोहें-तुम राधा मनभवनी , मैं तेरा घनश्याम

हमें सुनाती ज़िंदगी , तन्हाई का गीत । भरते-भरते उम्र की , गई गगरिया रीत । मेघों के संग आज फिर , उड़ी तुम्हारी याद

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दोहा

ढूंढ रहा था मन जिसे,होकर बड़ा उदास

ढूंढ रहा था मन जिसे,होकर बड़ा उदास,नहीं दिखाई दे रही,लिया आज अवकाश।लिया आज अवकाश,हमेशा मुझे सताए,सबसे करती बात, नहीं यह मुझको भाए।बना बहाने रोज, झूठ

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दोहा

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अपनी अपनी सब यहाँ, ले आये तकदीर। दर्द समझ तूं गैर का, बन जा बुद्ध-कबीर।।

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