गज़ल-बेपर हुए
पंख रहते हुए भी बेपर हुएपरिन्दे जो क़फ़स के अन्दर हुए ! पत्थरों को बना डाला देवतापुजारी जैसे स्वयं पत्थर हुए ! कह रहा था
पंख रहते हुए भी बेपर हुएपरिन्दे जो क़फ़स के अन्दर हुए ! पत्थरों को बना डाला देवतापुजारी जैसे स्वयं पत्थर हुए ! कह रहा था
पिछले हैं जख्म हरे ,दहशत का साया है विज्ञापन पर सवार नया साल आया है ! थिरक रहे साहब जी,हल्कू हलकान बहुत नगरों में नाच-गान,
दर्द दुहरा ग़ज़ल में पलता है , आपका मन महज़ बहलता है! रेत आँखों में ख़्वाब गुलशन के , ज़िन्दगी की यही सफलता है। हमको
आइए, कोई नयी शुरुआत हो गाँठ मन की खुले ऐसी बात हो । लौट आयें गीतवाले दिन मधुर रात आये जो ग़ज़ल की रात हो
सामने जो बहुत मीठा बोलता है वही पीछे में ज़हर भी घोलता है! दिल भरा है ,पर सुनायें क्या,किसे? यहाँ तो हर शख़्स जेब टटोलता
अधनंगे लोगों का वृत्त में जमाव ताप तनिक , धुआँ अधिक सुलगता अलाव । किस्सों – बुझौवलों से बने नहीं बात मालिक के सूद सरिस
कंबलों को तहियायें,समेटें रजाइयाँ मलयानिल मन्द-मन्द लेता अंगराइयाँ ! प्रकृति-पांचाली का पत्र-चीर है अछोर शिशिर बना दुःशासन – थक गयी कलाइयाँ । रूखी इन शाखों
बुलबुले-सा बनता-मिटता जाएगा शिकवा-गिला टूटने पाये न अपने स्नेह का यह सिलसिला । व्यर्थ की बातों में बहकेंगे-बँटेंगे हम अगर ध्वस्त होगा किस तरह फिर
कोई मौसम हो,जाने क्यों पतझर लगता है! अपने घर में ही अनजाना-सा डर लगता है! कितना छोटा और अनिश्चित कितना जीवन ऊब, उदासी,उलझन कितनी-कितनी अनबन
हर शख़्स है तना हुआ कमान की तरह अपने ही पेश आ रहे अनजान की तरह। जिस घर को सजाने में मैं ख़ुद बिखर गया