गज़ल

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तुम्हें क्या लिखूं

तुम्हें क्या लिखूं मनमोहनी हो तुम, मन के भीतर रहने वाले क्या मैं तुमको मनमीत लिखूं… फूलों सी मुस्कराती हो दिल को तुम बहलाती हो।

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सियासत

सियासत ने वतन को बदनाम कर रखा है। झूठे लोग औ झूठी सियासत ने, मासूमों को गुमराह कर रखा है।। हर तरफ पहरेदारी है, हर

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क्या मुश्किल है

उनको हमसे प्यार नहीं है क्या मुश्किल है । हालांकी इनकार नहीं है क्या मुश्किल है । अपनेपन की रजनीगन्धा महक रही है । रिश्तों

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दूर तक सूखे हुए पत्ते मुहब्बत के(ग़ज़ल)

दूर तक सूखे हुए पत्ते मुहब्बत के । खिल नहीं पाये कभी गुंचे मुहब्बत के । किस क़दर कमज़ोर थे अपने नशेमन भी । आंधियों

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रिश्तें

जब होंठ पर हँसी आती तो खिलते हैं रिश्तें, अपनो से अकारण बिछड़ने से डरते हैं रिश्तें। दुनियावी लोग सभी जब यहाँ छोड़ जाते है,

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