कविता

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मोहे रंग दे गुलाल

रंग दे पिया मोहे रंग दे गुलाल। भर पिचकारी रंग डारे है लाल। फागुनी मौसम फिजाएं खिली। मदमस्त मस्तानी हवाएं चली। लबों पे तराने दिल

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घर आएं न खेलन होरी

रंग दे पिया मोहे रंग दे पिया भर पिचकारी रंग खेले पिया फागुनी मौसम फिजाएं खिली मदमस्त मस्तानी हवाएं चली लबों पे तराने दिल खिलने

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प्रेम का घड़ा

मीठे पानी सेभरी हुई यह धरतीफागुन की धूप मेंतपने लगीवसंत की हवाजंगलों में दौड़तीनदी के किनारेआयीयहां बाग बगीचों मेंपेड़ों से पीले पत्तेझड़ने लगेडालियों परनये पत्ते

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पहाड़ों के भीतर

हल्द्वानी सेपहाड़ों पर लंबी चढ़ाईअल्मोड़ा केआसपास से गुजरतेनैनीताल जाने वालीरोड के मोड़ पर रुककरचाय पीतेयात्रियों से बागेश्वर केबारे मेंबातचीत करतेहम शाम तकजंगलों से बाहरपिथौरागढ़ चले

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होली आई

होली आई होली आई ,रंगों की बहार है लाई।होली आई होली आई ।।रंग – बिरंगे गुलालों के संग,मिलकर हम सब हमजोली ।स्नेह और सौहार्द के

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अलविदा कहकर

जा रहा हूं तेरे शहर को अलविदा कहकर और न रह पाएंगे तेरे शहर में हम खफा होकर जा रहा हूँ तेरे सहर को अलविदा

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नारी

युग युगों से हूँ बनी पहचान जग में प्रेम की, क्या हुआ यदि मैं नहीं कान्हा की परिणीता हुई। राम जिसके बिन कभी भी राम

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