नज़ारा और कोई किस तरह दिखाए नज़र
नज़ारा और कोई किस तरह दिखाए नज़र, तेरे सिवा कोई मौजूद हो तो आए नज़र। वो जिसको देख के अल्लाह याद आता हो, उस एक
नज़ारा और कोई किस तरह दिखाए नज़र, तेरे सिवा कोई मौजूद हो तो आए नज़र। वो जिसको देख के अल्लाह याद आता हो, उस एक
फिर मुद्दतें गुज़र गईं ख़ुद से मिले हुए, मैं ख़ुद में खो गया था तुझे सोचते हुए। और आप हैं कि हाथ लगाने पे आ
मेरी ये बात लोगों को नहीं भाती कि मैं अक्सर, जो वाबस्ता हो तुझसे ऐसा क़िस्सा छेड़ देता हूँ। ये दुनिया वाले ऐसे ही मुझे
इन आँखों को रुलाने का मज़ा कुछ और होता है, ख़ुदा से ख़ौफ़ खाने का मज़ा कुछ और होता है। हमारी ये ग़लत फ़हमी रुलाती
इन मुन्सिफ़ों की जेब में कितनी मलाई है, हैं दफ़्न सारे राज़ अदालत की गोद में। अब फ़ैसला कहाँ से मेरे हक़ में आएगा, इन्साफ़