फिर आया पतझड़ का मौसम
आई थी बहार साखों पर,कली कली मुस्काई थी, हरे रंग की चादर ओढ़ के,पात_पात इतराई थी ओस की बूंदे गिरी पातों पर,तरु की सोभा बढ़ाई
आई थी बहार साखों पर,कली कली मुस्काई थी, हरे रंग की चादर ओढ़ के,पात_पात इतराई थी ओस की बूंदे गिरी पातों पर,तरु की सोभा बढ़ाई
आज गुलाब बहुत घबराया है, सोंचता है क्यूं सुगंध पाया है। जन्म से कांटे रहे साथ में, उम्र भर बस दर्द ही पाया है।। फिर
भरत से पड़ा नाम भारत का, हम उस भारत के रखवाले हैं। अपनी पर जो यदि आ जाए, तो हम इतिहास बदलने वाले है।। हम
देखो नित उड़ान अब,भरती है बेटियां, कहां किसी के रोके, रुकती है बेटियां । अब तो अम्बर भी छोटा, लगने लगा है, कुछ इस तरह
कलम हमारी बोली कविवर, मुझे ये क्यूं नही बताते हो । एक वर्ष में तीन दिवस क्यूं ? तुम देशभक्ति जगाते हो ।। इस वतन
कतरा _कतरा रक्त बहाया, तन मन मातृ भूमि पर वार दिया । धन्य धन्य आजादी के दीवाने, ऐसे जन्मभूमि से प्यार किया ।। मंगल पांडे
आया बसंत झूम कर देखो, तरु नव पलल्व लगे है पाने । दिनकर को फिर तेज मिल गया, अब शीत को लगे है हराने ।।
बेजुबान है तो क्या कोई जज्बात नही है, मां के पेय पर शिशु का क्या अधिकार नहीं है। कौन सा मुंह दिखलोगे,दुनियां बनाने वाले को,
कभी भूमि फट रही है,कभी धरती हिल रही है देखो अब विनाश की,झांकी भी दिख रही है। भूस्खलन, तूफान,बाढ़ से,सब त्राहि माम कर रहे है,
मेघनाद उदास बहुत है,रघुपति से जीत न पाऊंगा, पिता वचन स्वीकार मुझे,लड़ते लड़ते मर जाऊंगा, इंद्र न मुझसे जीत सका,फिर तपस्वी कैसे जीत रहे, ये