कमल-ए- बुजदिली है अपनी ही आँखों में पस्त होना,
अगर थोड़ी सी जुर्रत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकता,
उभरने ही नहीं देती बेईमानिया दिल कि नहीं तो,
कौन-सा कतरा है जो दरिया हो नहीं सकता।
अंग्रेजी नाटककार विलियम शेक्सपियर ने कहा है, “महानता से घबराइये नहीं; कुछ लोग महान पैदा होते हैं, कुछ महानता हासिल करते हैं और कुछ लोगों के ऊपर महानता थोप दी जाती है।”
ये बात भारत के शहीद-ए-आज़म भगतसिंह पर पूरी तरह से लागू होती है जो महान पैदा ही हुए थे। एक भारतीय कहावत है कि ‘पूत के पांव पालने में ही दिखाई देता है।” इस कहावत के भगतसिंह सुन्दर और स्पष्ट उदाहरण है। कहा जाता है कि एक बार बचपन में भगतसिंह अपने खेतों में काम कर रहे थे तो उनके पिता सरदार हरकिशन सिंह संधू ने पूछा कि बेटा क्या कर रहे हो तो भगतसिंह ने उत्तर दिया कि पिताजी बंदूके बो रहा हूं और इसी से अंग्रेजों को भारत से बाहर भगाऊंगा। बचपन से ही ऐसे क्रांतिकारी तेवर थे भगतसिंह के जो आजीवन अपनी मातृभूमि के लिए जिंदा रखा और भारत की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। ऐसे भारत के राष्ट्रनायक को हम अभी तक उचित मान-सम्मान देने में विफल रहे हैं। जो बस इतिहास के पन्नों पर ही सिमट कर रह गया।
महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह आज भी युवाओं को प्रेरित और प्रोत्साहित करते हैं। 28 सितंबर 1907 को ब्रिटिश भारत के पंजाब के बंगा में एक सिख परिवार में जन्मे भगत सिंह में देशभक्ति की भावना थी। स्वतंत्रता की गहरी लालसा में भगत सिंह ने अपना जीवन ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने के लिए समर्पित कर दिया था। जलियांवाला बाग हत्याकांड से भगत सिंह बहुत आहत हुए थे जिसके बाद उन्होंने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने का प्रण लिया। लाला लाजपत राय की क्रूर पिटाई और मृत्यु को देखने के बाद, भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों ने बदला लेने की प्रतिज्ञा की। देश के प्रति भगत सिंह का बलिदान आज भी देश के लोगों को प्रेरित करता रहता है। उनकी विरासत युवाओं को गलत के खिलाफ खड़े होने और न्याय के लिए लड़ने की याद दिलाती है। कितना विराट होता होगा वह जीवन जिसके सामने काल का क़द बौना सिद्ध हो जाए! कितने जुनून से जी जाती होगी वह ज़िंदगी जिसे मृत्यु जैसे अपावन तत्व का असमय स्पर्श भी अमर होने से न रोक पाये। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में संघर्ष, उत्साह, शौर्य, साहस व चिंतन की समग्रता को परिभाषित करने वाले क्रांति के पर्याय-पुरूष थे अमर शहीद भगत सिंह। भगतसिंह ने लिखा..
सीमा नहीं बना करतीं हैं काग़ज़ खींची लकीरों से,
ये घटती-बढ़ती रहती हैं वीरों की शमशीरों से।।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक ऐसा क्रांतिकारी जिसका नाम लेते ही हर हिन्दुस्तानी के मन और आत्मा में स्फूर्ति और ताजगी भर जाती है वो नाम है ‘शहीद-ए-आजम भगतसिंह’ जिसने अपना जीवन इस मातृभूमि भारत के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने अपना घर यह कहते हुए छोड़ दिया कि अगर मेरा विवाह गुलाम भारत में हुआ तो मेरी वधु केवल मेरी मृत्यु होगी। उन्होंने सुखदेव के साथ मिलकर लाला लाजपत राय के मौत का बदला लिया। एक सिख के लिए दाढ़ी और बाल बहुत महत्वपूर्ण होते हैं मगर उन्होंने इसे कटवा दिया ताकि अंग्रेज उन्हें पकड़ न सके। भगतसिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर दिल्ली के सेंट्रल असेंबली में बम फेंके और इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ खुद को गिरफ्तार हो जाने दिया। जेल के अंदर भी उनका क्रांतिकारी रवैया क़ायम रहा और आक्रामक तरीके से भारत की स्वतंत्रता के लिए कैदियों को प्रेरित किया और अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए। अपने मुकदमे का भी इस्तेमाल उन्होंने देश की आजादी के लिए किया। कोर्ट में प्रवेश और निकलते हुए इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते और लोगों को प्रेरित करते। भगतसिंह की फांसी की सजा 24 मार्च 1931 तय हुई थी लेकिन उनकी बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखते हुए अंग्रेजो ने उन्हें 23 मार्च 1931 को सायं 7.30 बजे फांसी पर लटका दिया। लोगों का कहना है कि भगतसिंह हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गये और “ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो” यह उनका अंतिम नारा था। कहा जाता है कि भगतसिंह की अंतिम इच्छा थी कि उन्हें फांसी पर लटकाने की जगह गोली मारकर मौत दी जाए मगर अंग्रेजो ने उनकी आखिरी इच्छा नहीं मानी। इस तरह भारत के सबसे प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी को मात्र 23 साल की उम्र में फांसी दे दी गई। उनकी मृत्यु ने भारत के हजारों लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
लेकिन विश्व के सबसे युवा देश भारत की किस्मत सियासत की स्याही से लिखी गई है इसलिए भारत माता के लिए मर मिटने वाले भगतसिंह आज भी कई जगह शहीद का दर्जा तक हासिल नहीं कर पाए जबकि उन्हें राष्ट्रपुत्र होने का पुरा हक और अधिकार है क्योंकि उनकी जिंदगी बचपन से लेकर अधूरी जवानी तक देश के ही नाम थी। लाख दूनिया चरखा चरखा चिल्लाती रहे, पर मेरी कलम इस बात पर अडिग और निडर है कि देश क्रांति से आजाद हुआ। सवाल ये भी है कि देश के इस सच्चे राष्ट्रभक्त की कुर्बानी के वक्त सबसे बड़े वकील गांधी और नेहरू मौन थे और उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था। एक सच्चे राष्ट्रभक्त को वैचारिक मतभेद की इतनी बड़ी यातना सहनी पड़ी और फांसी जैसी सज़ा मिली। भगतसिंह शहीद थे उसके अलावा भी कई वजहें हैं जो उन्हें राष्ट्रपुत्र का दर्जा दिलाने के लिए काफी है। वे सच्चे राष्ट्र चिंतक और युवा जागृति के पर्याय थे। वे दूरदृष्टा भी थे उन्होंने ने साफ और स्पष्ट शब्दों में कहा था कि मेरी मौत की खबर सुनकर देश का युवा जाग जाएगा और ब्रिटिश हुकूमत को घूटने टेकने पड़ेंगे। भगतसिंह स्वयं मानवता के पुजारी थे इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि असेंबली में उनके द्वारा बम जान बूझकर ऐसी जगह फेंका गया जिससे कोई हताहत न हो। देश के लिए जीने वाला, भूखा-प्यासा रहने वाला, जन-जन को जगाने वाला, बचपन जवानी बर्बाद करने वाले भगतसिंह के जीवन का हर पल हमारे युवाओं के लिए प्रेरणा है और हमेशा रहेंगे। उन्होंने सरफ़रोशी का मतलब साबित किया। हमारा अतीत और वर्तमान हमसे ये प्रश्न करता रहेगा कि हमने शांति के नाम पर मोहनदास करमचंद गांधीजी को महात्मा और राष्ट्रपिता बना दिया मगर त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति भगतसिंह को सही अर्थों में शहीद का दर्जा तक नहीं दे पाए। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर को है जो आधे भारत को पता भी नहीं है मगर 3 दिन बाद 2 अक्टूबर को केवल भारत ही नहीं बल्कि पुरा विश्व गांधी जयंती और अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाता है जबकि उसी दिन जन्मे गुदड़ी के लाल लालबहादुर शास्त्री जी को लेकर वो भावना नहीं है। ये विवाद का विषय नहीं बल्कि संवाद का विषय है। राष्ट्रनायक भगतसिंह को राष्ट्रपुत्र का दर्जा मिलना चाहिए।
इस कदर वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज़्बातों से,
अगर मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ तो इंक़लाब लिखा जाता है।
इन्कलाब जिंदाबाद।