नास्तिकता यू ही नही उभरती है
जब अंग–अंग छलती है
जब अंग–अंग तड़पती है
जब अन्याय के आगे आसमान असहाय हो जाता है !
जब निश्चल पवित्र मन पर
ईश्वर को तरस नही आता है !
जब क्रूर ताकते अपना रौद्र रूप दिखाता है
जब समाज में अमीरी –गरीबी का बड़ा फर्क नजर आता है ।
जब अमीर बड़े ऐशो आराम से जीता है।
जब गरीब सरकारी अस्पताल में भी न उचित इलाज पा पाता है ।
तब मन से आस्तिकता का भूत अपने आप मरने लगती है
तब पवित्र मन सबसे गुहार लगती है ।
पर अंततः शून्य ! कोई भी रहम न दिखाता है ।
तब हार कर मन आखिर में नास्तिक ही बन जाता है ।
यूं ही मैं भी एक बार आस्तिकता से भरा था
मैं था ईश्वर प्रिय भक्त उनकी भक्ति में रहता था।
पर मैं मासूम ,को उस न्याय पर गुमान था
शायद मैं उस क्रूर ,अन्याय से अनजान था ।
जो क्रूरता धरती पर मासूमों को साथ होता है।
जिस क्रूर रहस्यों पर विधि को भी तरस नही आता है।
मेरी मांँ जब अंतिम क्षण मे अपनी अंतिम क्षण गिन रही थी
और मेरी अंतरतमा उसको बचाने के लिए हर तरफ रो रही थी
जंगल,आकाश ,पर्वत,सूर्य ,ईश्वर हर तरफ मैं हाथ जोड़ कर रो रहा था ।
बस एक ही अर्ज था मेरा
बचा लो मेरी मांँ को !
पर हर तरफ शून्य कोई कुछ भी सुन नही रहा था।
तब घुट –घुट कर मेरे अंतर से आस्तिकता मर रहा था।