जिंदगी एक उलझा हुआ ख्वाब है
कब ओ क्या देखले कुछ पता ही नही
जो हुआ ना कभी भी दिवास्वप्न में
रात में कैसे आया पता ही नही
रात आती गई दिन ये ढलते गए
जिंदगी के सफर रोज कटते गए
दुख भरे पल ये जीवन के कटते नहीं
सुख के पल कब ये बीते पता ही नहीं
जिंदगी सिलसिला काफी लंबा रहा
मौत का साथ तो दो पल भी नहीं
मुंह छुपाकरके बैठी कहां अब तलक
बात इतनी किसी को पता ही नहीं
गम कभी तो कभी खुशियां मिलती गई
सबकी ही जिंदगी यूं गुजरती गई
स्वार्थ के भाव में डूबते ही गए
क्यों मैं आया जगत में पता ही नहीं
उग गया हो मगर ना ढला हो कोई
एक जैसा ही जग में रहा हो कोई
चाहे बचने का कितना भी कर ले जतन
वक्त के छल से कोई बचा ही नहीं
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