पुस्तक – कागज़ के फूल
लेखक : संजीव कुमार गंगवार
गुरुदत्त जी की कृति “कागज़ के फूल” को केंद्र में रख कर रचित यह पुस्तक जो गुरुदत्त जी के विषय में जानने वालों के लिए निश्चय ही एक संदर्भ ग्रंथ का कार्य करेगी ,संजीव जी के, गुरुदत्त जी को ,अर्पित श्रद्धा सुमन है एवं उनके भागीरथी प्रयासों का यह दस्तावेज़ उन्हें आम लेखकों की श्रेणी से काफी ऊपर स्थापित करने में अहभ भूमिका अदा करता है । गुरुदत्त जी के विषय में किये गए शोध के अपने अथक प्रयासो में संजीव जी पूर्णतः सफल हुए है । इस पुस्तक की विषयवस्तु को इतना सुंदर बनाने में गहनता से किये गए अनुसंधान पर 5 वर्षों की मेहनत झलकती है । कुछ हस्तियां आम जन के मानस में वह स्थान प्राप्त कर लेती है कि उन्हें सम्मानित कर हम स्वयं सम्मानित होते है वही आदर इस पुस्तक के ज़रिए संजीव जी ने भी प्राप्त किया है ।पुस्तक को सरल एवं आसान शब्दों एवं आम आदमी की समझ में आ सकने योग्य वाक्य विन्यास के संग रचा गया है ।
कागज़ के फूल गुरुदत्त साहब के जीवन की कहानी नहीं थी , किन्तु दुःखद संयोग देखिये की जो जो फ़िल्म में हुआ वैसा ही उनके निजी जीवन में भी घटता गया । व्यक्तिगत जीवन की निराशा और दैनंदिन संघर्ष से तो वो सदैव जूझते ही रहे किन्तु इसके साथ साथ ही वहीदा जो उनकी खोज थीं जो उनके लिए एक कृति या शायद एक शिष्या कलाकार से ज्यादा न थीं परंतु गीता दत्त जी के साथ उनके मनमुटाव की मुख्य कारक बनी एवं ता-उम्र उनके दाम्पत्य जीवन में कलह एवं उनके बीच की दूरियों की प्रमुख वजह भी बनी । सामान्य एवं सुंदर से वाक्यांश है । गुरुदत्त जी के बचपन से प्रारम्भ हुए संघर्ष से लेकर उनकी अकाल मृत्यु तक उन्होंने बहुत कुछ खोया , शायद कुछ पाया भी हो किन्तु जीवन आद्योपांत संघर्षपूर्ण ही रहा । उनके जीवन के कुछ पहलुओं को विस्तार से बतलाते हुए लेखक ने आज की युवा पीढ़ी एवं साथ ही जो गुरुदत्त जी को जानना चाहते है उन सब पर बहुत बड़ा उपकार किया है । पुस्तक को पढ़ कर गुरुदत्त जी को समझने की ,उनके बारे में जानने की सम्पूर्ण अभिलाषा पूर्ण हो जाती है । यह दुर्भाग्य ही था कि कागज़ के फूल असफल साबित हुई और इस कड़वे सच को बड़े ही सुंदर शब्दों में लेखक ने कहा भी है कि उस पिक्चर में यही एक कमी थी कि उसमें कुछ कमी न थी , अपने आप में 100 प्रतिशत सत्य है । अक्सर होता है कि कलाकार की जो कृति उसे सबसे ज्यादा प्रिय होती है, जिसे वह सबसे ज्यादा दिल से बनाता है वही दर्शक को पसंद नही आती एवं कागज़ के फूल इसकी अपवाद न थी । गुरुदत्त जी हिंदी सिनेमा के ऐसे नामी व्यक्तित्व थे जो अपने जमीनी जुड़ाव के लिए सदा जाने जाते रहे । गुरुदत्तजी को अथक संघर्ष के पश्चात मिली उनकी पहली फ़िल्म बाज़ी से लेकर शुरू हुए उनके फिल्मी करियर और उनकी असमय मृत्यु के बीच की उनकी यात्रा , उनकी कुछ चुंनिन्दा फिल्मों की संक्षेप में कहानी , उनकी सफलता असफलता की कही कम कही ज्यादा जानकारी उनका शराब में डूबते चले जाना ,पारिवारिक स्तर पर सिर्फ घुटन और असंतोष , सभी बिंदुओं को लेखक ने बड़े ही व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया है । बहुत छोटी उम्र में जब उन्होंने 1951 में बाज़ी करी तब उनकी उम्र ही क्या थी अन्यथा इतनी सी उम्र में इतना तज़ुर्बा और इतनी परेशानियां कौन पाता है है । जिन फिल्मों के विषय में संजीव जी ने यह विवरण लिखा है वे पाठक को पुनः फ़िल्म देखने व और एक बार या शायद बार बार उन दृश्यों को जी लेने हेतु प्रेरित करती है ।
अपनी पहली ही फ़िल्म में गुरुदत्त जी ने अपने कार्य से लोगों को अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दे दिया था । तब जबकि उनका सफल निर्देशन चल पड़ा ,पर साथ ही उसके पीछे के जो अनुभव , कष्ट अभाव और संघर्ष थे सभी का बहुत विस्तृत वर्णन दिया गया है । अन्वेषण कार्य अत्यंत सूक्ष्मता से किया गया है परिणाम स्वरूप पुस्तक अपने आप में सम्पूर्ण एनसाइक्लोपीडिया बन गयी है गुरुदत्त जी का । यह कहना कि यह सिर्फ “कागज़ के फूल” पर केंद्रित पुस्तक है तो संभवतः पुस्तक की विषयवस्तु के संग न्याय न होगा। गुरुदत्त जी के जीवन के लगभग हर प्रमुख पहलू को खंगाला गया है ।यदि चाहते तो कुछ विषयों को अनदेखा कर सकते थे जैसे गुरुदत्त कि फिल्म निर्माण शैली । किन्तु नही उन्होनें बहुत ही गंभीरता एवं जबाबदेही से लिखा है । पूरा न्याय किया है विषय के साथ। प्यासा जो 1957 में आई थी उस पर भी बहुत ही गहन एवं विस्तृत चर्चा की है। गुरुदत्त ने अपने जीवन में ज्यादातर सफल ही नही अत्यंत सफल फिल्में ही दी, किन्तु मानो सफल होने की भी आदत हो जाती है और इंसान आसानी से असफलता के संग तालमेल नही बैठा पाता ,ऐसा ही गुरुदत्त जी के संग हुआ संभवतः ।सूक्ष्म जानकारियों को भी बहुत सलीके से संजोया गया है।
गुरुदत्त साहब महान कलाकार थे, है एवं रहेंगे , उन पर लिखा गया हर शब्द अमूल्य दस्तावेज़ है अस्तु उस अतुलनीय कार्य की समीक्षा तो हो ही नही सकती , हाँ सिर्फ अपनी राय देते हुए यही कहूंगा कि बार बार पढ़ने योग्य एक संग्रहणीय पुस्तक है जिसे पढ़ना एक अविस्मरणीय अनुभव है ।
सादर,
अतुल्य
05.03.2023
उज्जैन( म.प्र.)