भारतीय परिधान सुंदर
क्यों विमुख हैं नारियां
खूब फबती सारियाँ ।।
माँग में सिंदूर लठवा, तन सुशोभित सारी लसे
देखकर मन पथिक का, बरबस उसी में आके फँसे।
पवन भी आँचल उड़ाकर, पद धूल ले माथे बसे
कवि कल्पना में उड़ती फिरो, अन्न ना उसको धँसे।।
नग्नता को माथ देकर
तन को बनाए फुलवारियाँ
खूब फबती सारियाँ ।।
डाल घूँघट अबला चले, जन देखने को दंग है
सिर से पांव तक तन ढका, ना ही दिखता अंग है।
यदि अनिल अवगुंठन हटा दे, छिड़ता जगत में जंग है
कवि रंग भी खाता तरस, वो भी सदा सारी संग है।।
रूप पर ही मिटा जग
कितनी मिटी किलकारियाँ
खूब फबती सारियाँ।।
हटी सारी नग्न नारी, मचा जग में हाहाकार है
विदेशी सीख लेती बलि हैं देती, ऐसा अत्याचार है।
नियम कानून हैं व्यर्थ सब, परेशानी में सरकार है
निकालना सदन से दूभर हुआ, नग्नता को नमस्कार है।।
महँको सुमन सी गंध लेके
खिलो जैसे क्यारियाँ
खूब फबती सारियाँ।।
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