गोपाल सिंह ‘नेपाली’ उत्तर छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं | वे प्रेम,प्रकृति और राष्ट्रीयता की गीतिकाव्यधारा के विशिष्ट हस्ताक्षर हैं | इन्होंने आलोचकीय साहित्यिकता से पृथक जनगीत-धारा का साहित्यिक रूप अपनाया | उनका काव्य जीवन के सहज सौन्दर्य-बोध का काव्य है और उनके सौन्दर्य-बोध की सर्वाधिक जीवंत प्रस्तुति उनके प्रकृति-काव्य में मिलती है | उनकी प्रकृतिपरक कविताओं में उनका प्रकृति के प्रति सहज और स्वाभाविक अनुराग प्रकट हुआ है | उनकी काव्य-संवेदना के मूल में प्रेम और प्रकृति है | उनके सम्बन्ध में यह सच ही कहा गया है कि – “नेपाली का काव्य प्रकृति के सहज सौन्दर्य का काव्य है | प्रकृति के प्रति उसमें गहरी आत्मीयता है और बहुत हद तक अभिन्नता भी | पीपल, पंछी, घास, सरिता, मौलसिरी, बेर को काव्यात्मक गरिमा देने में नेपाली बेजोड़ हैं | पर्यावरण संरक्षण के लिए किये जा रहे प्रयत्नों को कवि की प्रकृतिपरक कविताओं से प्रेरणा मिल सकती है | इसलिए इनकी प्रासंगिकता असंदिग्ध है |”1
प्रकृति का मानव–जीवन में अमूल्य योग रहा है – सृष्टि के आरम्भ से ही | प्रकृति जीवन और साहित्य का प्रमुख उपादान रही है | नेपाली प्रकृति को नैसर्गिक सौन्दर्य का भंडार मानते हैं | साथ ही उनकी मान्यता है कि जगत के संपूर्ण कोलाहल, मनुष्य की संपूर्ण यांत्रिक यातना से मुक्ति का मार्ग प्रेम और सौन्दर्य ही दे सकते हैं और प्रकृति नैसर्गिक सौन्दर्यपूरित होने के कारण इसका एक महत्त्वपूर्ण उपादान है | नैसर्गिक छवियों के दर्शन मात्र से शरीर को स्फूर्ति और मानसिक पोषण प्राप्त होता है | नेपाली का प्रथम काव्य-संग्रह संग्रह है- ‘उमंग’ | ‘उमंग’ की एक कविता में इन्होंने इस ओर संकेत करते हुए स्वयं लिखा है कि –
“जीवन में क्षण-क्षण कोलाहल,ज्यों सुख त्यों दुख,सुख-दुःख समान
आती संध्या जाता विहान, जाती संध्या आता विहान
इसलिए जगत में दो ही तो कुछ शांति कभी देनेवाले
है एक प्रकृति की मृदुल गोद, दुसरा प्रेम का मधुर गान ||”2
नेपाली प्रकृति के संपूर्ण कवि हैं | प्रकृति उनके काव्य की प्रेरणा-भूमि है | कविवर सुमित्रानंदन पंत ने ‘उमंग’ की भूमिका में इस ओर संकेत करते हुए लिखा है कि- “आपका कवि-कंठ,’निर्मल निर्झर के समान’,अवश्य ही मंसूरी की तलहटी में फूटा होगा | इसलिए आपकी रचनाओं में जो उन्मुक्त वातावरण एवं स्निग्ध अनिलाताप मिलता है,वह पाठक के हृदय की खिड़की खोलकर,’नरम दूब’ बिछी राहों से,’विलास की मंसूरी’से ’जंगल की मंसूरी’ में ले जाकर,प्रकृति की मनोरम क्रीड़ा-भूमि में छोड़ देता है,जहां ‘जंगल की हरियाली अंचल पसार’ कर उसका स्वागत करती है | ‘जामुन तमाल इमली करील,ऊपर विस्तृत नभ नील-नील’,’ऊँचे टीले’,’गिलहरियों के घर’ मन को मोहते हैं | ‘पीले-पीले लाल-लाल ,फल-फुल मुकुल से लदी डाल’ में ‘मधुप गुनगुन’,’फुलचुग्गी रुनझुन’ करती,’बुलबुल-सुग्गे चुन-चुन’ फल खाते हैं | जहाँ ‘द्रुम में दाड़िम गोल-गोल’, सेब, किशमिश, अनार से भी मीठे देहरादून के मधुर बेर खाने को मिलते हैं | जहां झीलों में जल, जल में मृणाल हैं | घर बसाने की प्रतीक्षा में डालों पर बैठे पक्षियों के जोड़े ‘चोंचों से पर सुहला-सुहलाकर’,प्रेम विह्वल हो कल-कूज करते हैं |”3
स्वयं कवि के शब्द हैं- “यह हरी-हरी दूब की ही महिमा है कि आज मेरे हाथ में बंदूक के बदले लेखनी है |”4
इतना ही नहीं प्रकृति ने ही नेपालीजी को कविताई सिखाई है-
“फूटा है मेरा कण्ठ यहीं रे निर्मल-निर्झर के समान
सिखा है मैंने यहीं तीर पर सरिता के मृदु सरल गान
सिखलाया है नित यहीं मुझे पंछी ने उड़ना पाँख खोल
है हुआ यहीं क्रीड़ा, निकुंज में मेरे जीवन का विहान ||”5 नेपाली की प्रकृति विषयक कविताओं में पर्यावरण-संरक्षण की रचनात्मक पहल मिलती है | ‘पंछी’, ‘पीपल’, ‘हरी घास’, ‘सरिता’ जैसी प्रकृति-कविताओं में प्रकृति का महज सौन्दर्य ही नहीं है, उसके महत्त्व का रेखांकन भी है | ‘पंछी’ को संबोधित करते हुए कवि कहता है-
“रे पंछी, मंजुल बोल बोल
सुख मना मोद से कर किलोल
पक रहे सरस मंजुल रसाल
हैं पीले-पीले, लाल-लाल
फल-फूल मुकुल से लदी डाल
झीलों में जल,जल में मृणाल
द्रुम में ये दाड़िम गोल-गोल
रे पंछी मंजुल बोल बोल ||”6
नेपाली की कविताएँ प्रकृति के साथ गहरे तादात्म्य की कविताएँ हैं | उनमें प्रकृति के प्रति गहरी आत्मीयता अभिव्यक्त है | वे छायावादी कवियों की तरह ‘गुलाब’, ‘चमेली’, ‘जूही’ के सौन्दर्य से अभिभूत नहीं हैं, बल्कि लोकजीवन को को संरक्षण और पोषण देनेवाले प्राकृतिक तत्वों की ओर उन्मुख हैं | इसलिए कवि को ‘जूही की कली’ की अपेक्षा ‘पीपल’ और ‘बेर’ ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगते हैं | ‘पीपल’ का भारतीय सभ्यता-संस्कृति में विशेष महत्त्व है | ‘पीपल’ के स्नेहिल स्वभाव का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है –
“पीपल के पत्ते गोल-गोल
कुछ कहते रहते डोल-डोल
जब-जब आता पंछी तरु पर,
जब-जब जाता पंछी उड़कर
जब-जब खाता फल चुन-चुनकर
पड़ती जब पावस की फुहार,
बजते जब पंछी के सितार
बहने लगती शीतल बयार
तब-तब कोमल पल्लव हिल-डुल,
गाते सर्सर,मर्मर मंजुल
लख-लख,सुन-सुन विह्वल बुलबुल
बुलबुल गाती रहती चह-चह,
सरिता गाती रहती बह-बह
पत्ते हिलते रहते रह-रह ||”7
‘पीपल’ भारतीय सभ्यता-संस्कृति का प्रतीक वृक्ष है | इसमें हमारी आस्था की नमी और संकल्प की दृढ़ता है | कवि ने पीपल के सहज सौन्दर्य को साकार कर दिया है –
“कानन का यह तरुवर पीपल
युग-युग से जग में अचल,अटल
ऊपर विस्तृत नभ नील-नील,
नीचे वसुधा में नदी, झील
जामुन, तमाल, इमली, करील
जल से ऊपर उठता मृणाल
फुनगी पर खिलता कमल लाल
तिर-तिर करते क्रीड़ा मराल
ऊँचे टीले से वसुधा पर,
झरती है निर्झरिणी झर-झर
हो जाती बूँद-बूँद झरकर
निर्झर के पास खड़ा पीपल ,
सुनता रहता कलकल-छलछल
पल्लव हिलते रहते ढलपल-ढलपल||”8
इसी प्रकार देहरादून के मधुर ‘बेर’ की प्रशंसा कवि कुछ ऐसे करता है –
“देहरादून के मधुर बेर
जंगल में मिलते ढेर-ढेर
जब आता है रे शरद् काल
लदती बेरों से डाल-डाल
लख पीले-पीले लाल-लाल
हो जाती मंसूरी निहाल
थकते न नयन ये हेर-हेर
देहरादून के मधुर बेर ||”9
और मातृवत्सला ‘सरिता’ के सौन्दर्य को इन शब्दों में चित्रित किया है –
“यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल, कितना निर्मल
हिम के पत्थर वे पिघल-पिघल
बन गए धरा के वारि विमल
सुख पाता जिससे पथिक विकल
पी-पीकर अंजलि भर मृदु जल
नित जलकर भी कितना शीतल
यह लघु सरिता का बहता जल
कितना कोमल, कितना वत्सल
रे जननी का वह अन्तस्तल
जिसका यह शीतल करुणा जल
बहता रहता युग-युग अविरल
गंगा, यमुना, सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल ||”10
नेपाली की प्रकृतिप्रियता उनके परवर्ती काव्य-संग्रहों में और परिष्कृत और सघन होती गई है | पर्यावरण-संरक्षण के इस दौर में नेपालीजी की कविताएँ प्रकृति के महत्त्व को, उसकी स्वाभाविक सुषमा को सहजता से उजागर कर हमारे मन में प्रकृति के प्रति लगाव उत्पन्न करती हैं | नेपालीजी के काव्य में प्रकृति जीवन की अगन और थकन दोनों दूर करती है –
“झरो-झरो ऐ निर्मल झरने, छलक पड़ो वन में छलछल
फूटो-फूटो अब वसुधा से, छलक पड़ो वन में झलझल
मैं भी पी पाऊँ जीवन में एक घूँट झरने का जल
थकन दूर हो जीवन भर की, मन तुझ-सा ही शीतल ||”11
‘कुसुमवन’ का सौन्दर्य अभिभूत कर देता है | उसकी अद्वितीय सुषमा मंत्रमुग्ध कर देती है –
“सरिता के उस पार कुसुम-वन सुन्दर फूल रहा था,
जहाँ पहुँच सौन्दर्य विश्व का निज पथ भूल रहा था;
डाल-डाल पर कुसुम मनोहर हँस-हँस झूल रहा था,
अपने नवयौवन के आगे जग को भूल रहा था |
तरह-तरह के सुमन खिले थे, फूट रही थीं कलियाँ,
गम-गम गमक रही थीं सौरभ-सुरभित वन की गलियाँ,
सुमन कपोलों पर मधुपों की होती थीं रँगरलियाँ,
मानो वहाँ किसी ने रख दी थीं मिश्री की डलियाँ !
भौंरों की मृदु गुंजारों से वन था मुखरित होता,
इधर-उधर बहता था चंचल निर्मल जल का सोता;
जो भोई आता मोहित होता, अपनी सुध-बुध खोता,
कहीं गा रही मंजुल मैना, कहीं बोलता तोता |”12
नेपाली यह स्पष्ट मानते हैं कि प्रकृति से विलगाव न केवल नैसर्गिक सौन्दर्य से विलगाव है बल्कि विनाश का आमंत्रण भी है | उनकी प्रकृति विषयक कविताएँ प्रकृति के प्रति एक स्वाभाविक लगाव उत्पन्न करती है | प्रकृति की सुरक्षा मानव के अस्तित्व की सुरक्षा से सम्बद्ध है | प्रकृति ही पर्यावरण को संतुलित कर सकती है | हरे वृक्ष, कलकल करती बहती नदियाँ, दृढ़ता से सीना ताने पर्वत, कलरव करते पंछी जहाँ एक ओर धरती के अवसाद को कम करते हैं, अवसाद के बीच उल्लास का संगीत मुखरित करते हैं, वहीँ दूसरी ओर पर्यावरण-संरक्षण के लिये हमें उत्प्रेरित भी करते हैं | नेपाली की प्रकृति-विषयक कविताओं में कल्पना की वायवीयता कम, जीवन का यथार्थ अधिक है और इस यथार्थ का एक स्वर पर्यावरण-संरक्षण का भी है | नेपाली की अधिकांश कविताएँ पर्यावरण-संरक्षण के लिए जनमत का निर्माण करती हुई प्रतीत होती है | यह नेपाली की विशिष्टता भी है और आज के सन्दर्भ में उनकी प्रासंगिकता भी |
शोध-सन्दर्भ :
1.राय सतीश कुमार,संपादक,भूमिका, नेपाली : चिंतन-अनुचिन्तन, प्रथम संस्करण,2009,समीक्षा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर-नई दिल्ली,पृ. : 9 2.उमंग,कविता : नौका-विहार,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण, 2011,पृ. : 66
3.पंत सुमित्रानंदन,स्नेह-शब्द,उमंग, संपादक,नंदन नंदकिशोर,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. ; 7
4.नेपाली गोपाल सिंह,स्वर-संधान,रागिनी,संपादक,नंदन नंदकिशोर,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण :2011,पृ. : 5
5.उमंग,कविता : मंसूरी की तलहटी,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नईदिल्ली,संस्करण: 2011,पृ. : 61
6.उमंग,कविता : पंछी,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 40
7.उमंग,कविता : पीपल,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण :2011,पृ.: 53
8.उमंग, कविता : पीपल,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण :2011,पृ.: 53
9.उमंग,कविता : बेर,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 62
10.उमंग,कविता : सरिता,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 58-59
11.उमंग,कविता : प्रेम,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नईदिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 27
12. पंछी,पहला पंख(2,वनराजा),नंदन नंदकिशोर,संपादक,पुस्तक भवन,नई दिल्ली, संस्करण : 2011, पृ. : 21