इस शीत के मौसम में तुम
जेठ दुपहरी बन आना।
रोम-रोम में छा जाना।।
मैं अवाक रह गया, देख तुम्हारी मूरत को
कैसे उतारुँ दिल में, प्यारी सुंदर सूरत को।
क्या कहूँ कहते न बने, अपनी और जरुरत को
कौन घड़ी मिलन खड़ी, विचार रहा मुहूरत को।।
उतर करके दिल में मेरे
मन वीणा को हिला जाना।
रोम-रोम में छा जाना।।
मै पथिक निराला पथ का हूँ, पीछे की परवाह नहीं
यदि संग में सुंदर साथी हो, घरबार की चाह नहीं।
तेरे चाहत से आहत मैं, पर जीवन का थाह नहीं
स्वप्न सजाये निकल पड़ा हूँ, पगडंडी है राह नहीं।।
ईश्वर जाने मिलना-जुलना
ख्वाबों में रंगत दिखला जाना।
रोम – रोम में छा जाना।।
जीवन अपना कटता है, एक फकीरी मस्ती में
टूटी-फूटी झोपड़ियों में, दिलवालों की बस्ती में।
लेता नहीं एहसान किसी का, जीता खुदपरस्ती में
मैं लहरों का नाविक ठहरा, सोता अपनी कस्ती में।।
स्वाती की तूं बारिश बन
सीधे मुख में आ जाना।
रोम-रोम में छा जाना ।।
मै तरस रहा तूं बरस रही, कभी न बुझने वाली प्यास
तेरे आ जाने से जीवन में, बढ़ी उर्बरा उठी सुबास।
चल-चल के मै थका हुआ, देख तुम्हें सब मिटी ह्रास
नेत्र निमीलित करके बैठा, पाया तुमको अपने पास।।
बन करके मलयानिल तुम
मेरे मस्तक को सहला जाना।
रोम-रोम में छा जाना ।।