भारत और नेपाल की सीमा पर बसे एक छोटा सा धर्मपुर गांव हिमालय की गोद में प्राकृतिक सुषमा से सुशोभित अत्यंत रमणीय गांव है। गांव का एक छोटा सा शिव मंदिर जहां लोग वर्षों से भक्ति भाव के साथ पूजा अर्चना करते आ रहे थे वह छोटा सा मंदिर देखते हीं देखते एक विशाल मठ का रूप ले लिया और मंदिर में झाड़ू पोछा करने वाली रामदुलारी मठाधीश् वरी बन गई । अब ना तो वह पहले बाला गांव रहा जहां युगों से विकास की लौ ना जली थी और ना हीं वह पाखंडी पुजारी रहा जो धर्म-कर्म की आड़ में हमेशा से दुष्कर्मों का खेल खेलता आ रहा था । सब कुछ बदल गया एकदम सा बदल गया । अब तो गांव में एकता समरसता एवं सद्भावना का बयार बहने लगा । गांव वाले भी रामदुलारी को सिर आंखों पर बिठा लिया अब तो मठाधीश्वरी से देवी का अवतार भी कहलाने लगी । गांव का सारा कामकाज उन्हीं के हाथों संपन्न होने लगा । पति पत्नी का छोटा-मोटा झगड़ा से लेकर जमीन जायदाद के बंटवारे में होने वाले भीषण लड़ाई झगड़े सब का निपटारा वही करने लगी । गांव में शादी ब्याह हो या कथा कुटमैती, पर्व त्यौहार हो या यज्ञ याजन सभी फैसला मठाधीश्वरी द्वारा मठ में ही लिया जाता था । अकाट्य होता था उसके मुंह से निकला हुआ वाक्य । उसकी बात सभी माने भी क्यों नहीं धर्मपुर को धर्मपुर बनाने वाली भी तो वहीं थी । पहले तो नाम भर का धर्मपुर था ,कोई काक पंछी भी तो नहीं जानता होगा आज अगल-बगल के दस बीस गांवों में धर्मपुर का नाम फैल गया। देखने वाले कहते लगे वाह क्या गांव का रहन-सहन, रीति-रिवाज है, कितना प्रेम भाव एकदम धरती का स्वर्ग जैसा लग रहा है । रोज प्रातः चार बजे मठ के शंखनाद और घंटे की मधुर ध्वनि के साथ-साथ मंदिर की पूजा आरती ,गीत संगीत से गांव की दिनचर्या शुरू होकर शाम के सात बजे की पूजा प्रार्थना के साथ हीं खत्म होती थी । गांव की कोई भी बात गांव से बाहर नहीं जाती । ऐसा भी नहीं था कि मठाधीश्वरी द्वारा दिया गया फैसला किसी पर जोर जबरदस्ती थोपा जाता हो बल्कि पंचों की सहमति से निष्पक्ष न्याय गांव वालों की उपस्थिति में होता था । आखिर ऐसा क्या था रामदुलारी में जो मंदिर का झाड़ू पोछा करने वाली से मठाधीश्वरी बनकर देवी का अवतार कहलाने लगी ।
राम दुलारी गांव की मसोमात ( विधवा ) भगवतिया की एकलौती संतान थी । पिता का साया बचपन में हीं सिर से उठ गया था । गांव में हीं मेहनत मजदूरी करके किसी प्रकार भगवतिया ने उसका लालन-पालन तो कर लिया पर बड़ी होने पर शादी ब्याह के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी ना थी । गांव वालों की मदद से रामदुलारी का ब्याह बगल के गांव का राम लखन का बेटा रतन के साथ हुआ । रामदुलारी का बिना दान दहेज के खाली हाथ ससुराल जाने से रोज-रोज अपमान होता था । उसकी सास उसके ससुर को हमेशा गालियां दे देकर कहती – करमजला किस दरिद्र अभागिन को उठा लाया जो साथ में एक बकरी का बच्चा तक नहीं लाई । जिसके अपने चार चार बीघे जमीन हो घर में गाय भैंस सब हो उसका बेटा कहीं दरिद्र घर की बेटी से बियाहा जाय । ना जाने कौन सा मोहनी मंतर इस कलमुंही के मायने दिया कि चट मंगनी पट ब्याह कर ले आया अभागिन को घर में । जरूर इस कुलच्छिनी की माय ने जादू टोना की होगी तभी तो बिना दान दहेज का उठा लाया अब ठुसाते रहो जीवन भर कमा कमा के । निट्ठला अपने तो गजेडी – भंगेडी के साथ दिन भर भांग गाजा उड़ा ते रहता है एक होन हार बेटा था उसे भी बुडा के रख दिया ।
रामदुलारी का ससुर अच्छा आदमी था , वह इंसान को परखना जानता था । उसे बहू में एक सुलक्ष्मी बहू का सब गुण दिखाई देता था । स्नेह से बहू के सर पर हाथ फेर कर कहता – बेटा ! बुढ़िया का बुरा मत मानना मैं हूं ना सब ठीक हो जाएगा , एक बार इसकी गोद में पोता आ जाने दो फिर देखना कैसे लोरी गा – गा कर आशीर्वाद देगी ।
रामदुलारी को पिता का प्यार नसीब नहीं हुआ था सो ससुर का स्नेह पाकर निहाल हो जाती और भूल जाती सास की अनगिनत गालियां । पर कहते हैं ना फूटे किस्मत वाले का पैर समुंदर में पड़े तो वह भी सूख जाता है । दो साल बाद उसका ससुर भी नहीं रहा उसके गुजरते हीं उस पर मानो दुखों का पहाड़ हीं टूट पड़ा । अब तो चौबीसों घंटे मारपीट गालियां हीं रह गई थी । सास माथा पीट-पीटकर गालियां देने लगी -कुलच्छिनी जनम लेते हीं बाप को चाट लिया और यहां आते हीं ससुर को खा गई अब क्या करने बैठी है हम मां बेटे को खाकर हीं यहां से जाएगी क्या ?
बेचारी…. रोने के सिवा रह हीं क्या गया था। दिनभर सास की गालियां और रात में दारू पीकर आया पति से मार खा खाकर बेजान सी हो गई । जब नहीं सह पाई बेजान देह में इस तरह की मार तो रात के अंधेरे में भाग गई घर से नदी में डूब मरने के लिए पर नदी में डूबते समय बूढ़ी मां का चेहरा सामने आ गया सोचने लगी मैं तो मर जाऊंगी पर उस बेचारी का क्या होगा, कौन पोछेगा उसका आंसू ? कोई भी तो नहीं है ।बेचारी डूब कर मर भी ना सकी सुबह होते होते पहुंच गई मां के पास और पैरों पर गिरकर जार बेजार रोने लगी -मत भेजना माय उस कसाई के घर , यहीं मेहनत मजदूरी करूंगी, तुम्हारी सेवा करूंगी पर वहां पैर नहीं दूंगी…..।
गांव की औरतें ढाढस देने लगी हां हां मत भेजो उस कसाई के पास देखो तो कसाई ने कैसे मार मार कर शरीर को बेजान कर दिया है , हजारों घाव के निशान हैं बेचारी के शरीर पर । यहीं रहना हम सबके साथ रहना ,जब मेहनत मजदूरी करके हीं जीवन गुजारना है तो यहां वहां में फर्क हीं क्या है ।
अपनों की सहानुभूति पाकर रामदुलारी की टीस थोड़ी कम हो गई। ससुराल में बिताए बुरे दिनों को बुरा सपना मानकर सब भुला दी और जी जान से जुट गई गांव वालों की मदद में । हर घर के छोटे बड़े कामों में हाथ बटाना, मजबूर एवं बीमार लोगों की सेवा करना, गांव का छोटा सा शिव मंदिर में झाड़ू पोछा लगाना तरह- तरह के फूल पौधों को लगाना अब उसकी आदत बन गई । कुछ हीं दिनों में वह सब की चहेती बन गई ।
गांव का शिव मंदिर गांव के जमींदार परशुराम सिंह के दादा अवध किशोर सिंह ने बनवाया था । मंदिर के नाम से दस एकड़ जमीन भी कर दिया था परंतु वह जमीन अभी कुछ दिन पहले तक परशुराम के कब्जे में हीं थी जब फरिकान हिस्सा होने लगा तो उसे जमीन छोड़नी पड़ी । परशुराम सिंह को दबंगई के कारण परिवार वालों से नहीं बनता था । उसने कहीं से एक लठैत पहलवान को लाकर पुजारी के रूप में मंदिर में बैठा दिया । पहलवान पुजारी की मदद से वह और भी दबंगई करने लगा अब तो गांव वाले भी उससे डरने लगे थे ।
रामदुलारी तन मन से बाबा भोलेनाथ की पूजा और मंदिर की साफ सफाई में लगी रहती थी । मंदिर के दक्षिण में एक छोटा सा पोखर था जिसके भिंडों पर तरह-तरह के फूल लगे थे । तालाब के जल में असंख्य मछलियों को जल क्रीड़ा करते देखने दूर-दूर से लोग आते और भावविभोर होकर उन्हें दाना खिलाते रहते थे । वैसे तो सैकड़ों लोग प्रतिदिन मंदिर में पूजा करने आते परंतु माघ और फाल्गुन महीने में अपार भीड़ होने लगी । माघ महीना के सभी रविवार को दूर-दूर से लोग जल चढ़ाने आने लगे जिसमें रामदुलारी के ससुराल के लोग भी होते थे । सभी उसके भक्ति भाव की प्रशंसा करते । गांव में सब कुछ अच्छा चल रहा था । अगल-बगल के दस बीस गांवों में धर्मपुर का नाम हो गया था परंतु कभी-कभी उस लठैत पुजारी के द्वारा ऐसी ओछी हरकत होने लगी कि लोग दबी जुबान से आलोचना करने लगे । पुजारी की चाल चलन ठीक नहीं थी लोगों को उस पर शक होने लगा । गांव के हीं ततमा टोली के झमेली दास की विधवा बहू के साथ हमेशा उठना बैठना लोगों को खटकने लगा । आधी आधी रात तक उसके घर में रहना मंदिर का चढ़ावा उस पर लुटाना भला किसे अच्छा लगेगा । कानाफूसी तो खूब होती थी पर परशुराम सिंह के डर से लोग खुलकर नहीं बोलते थे । परशुराम सिंह के परिवार के लोग भी बंटवारे के समय से उससे जलने लगे थे , उसकी दबंगई और उदंड पुजारी को मंदिर में रखना किसी को भी पसंद नहीं था पर सामने बोलने से सब कतराते थे । ततमा टोली के लोगों को भी रात विरात पुजारी का आना जाना पसंद नहीं था पर उसके डर से कोई कुछ बोल नहीं पाते थे । पुजारी की बुरी नजर रामदुलारी पर भी गिद्ध दृष्टि की तरह गड़ी हुई थी । मौका देखते हीं कोई ना कोई ओछी हरकत करने से चुकते नहीं थे पर रामदुलारी किसी से डरती नहीं थी हमेशा मुंह तोड़ जवाब दे हीं देती थी ।
एक दिन संध्या समय रामदुलारी मंदिर का झाड़ू पोछा करने गई तो पुजारी ने उसे मंदिर की चाबी देते हुए कहा – मैं सत्यनारायण भगवान की पूजा करवाने उस पार के गांव में जा रहा हूं, रात में नहीं लौट पाऊंगा तुम आज शाम की पूजा आरती कर देना और हां ! भोग के लिए खीर बना दिया हूं भोग लगाकर खा लेना और मंदिर ठीक से बंद करके यहीं सो जाना ।
रामदुलारी को यह मौका कभी कभी मिल जाता था । जब पुजारी अगल बगल के गांवों में यजमानी करवाने जाते । आज भी यह मौका मिला तो खुश होकर
दौड़ती हुई घर गई और माय से बोली- माय ! पुजारी जी यजमानी के लिए उस पार के गांव गए हैं , सो मुझे आज रात मंदिर में हीं रुकना पड़ेगा तुम खा कर सो जाना । माय मुस्कुरा कर बोली – ठीक है ठीक है खा भी लूंगी और सो भी जाऊंगी ।अरे बिटिया ! तुम तो भगवान किशन की मीरा है रे ,जा अपने भगवान के पास ।अरे वह परशुराम सिंह का रखा हुआ पुजारी तो नाम भर का पुजारी है असली पुजारी तो तूं हीं है । गांव वालों को तो फूटी आंख नहीं सुहाता है वह गजे ड़ी भंगेड़ी , सब नफरत करता है कलमुंहे से । अरे सुन ! ताला ठीक से लगा कर सोना कोई विश्वास नहीं वह पापी पाखंडी का ?
रामदुलारी भाव विभोर होकर पूजा आरती में मगन हो गई ,घंटी बजा बजाकर जोर-जोर से आरती गाने लगी । पूजा आरती के पश्चात जब भोग की खीर खाने लगी तो माय की याद आ गई कितनी चाव से खाती है माय भोग की खीर । एक कटोरी में थोड़ी सी खीर निकाल कर रख ली ,जब सुबह घर जाऊंगी तो लेते जाऊंगी माय खुश हो जाएगी ।
प्रसाद खाने के बाद रामदुलारी मंदिर का दरवाजा बंद कर सोने गई तो माथा चकराने लगा, आंख भारी -भारी सी लगने लगी । उसे ऐसा लगने लगा जैसे खीर में कोई नशीली चीज मिला दी गई हो । वह बेसुध होकर सो गई पर सो भी नहीं पाई किसी अनहोनी की आशंका से मन बेचैन हो गया। देह भारी भारी सी लगने लगी मन में हुआ कि बाहर से ताला लगाकर घर चली जाऊं पर जा भी ना सकी कदम लड़खड़ा ने लगे । रात के लगभग दस बजते होंगे जाड़े के दिनों में दस बजे बड़ी रात होती है । गांव निझुवां निझुम हो गया । दरवाजे पर खटखट की आवाज सुनकर रामदुलारी की आंख खुल गई । आवाज लगाना चाही पर नहीं लगा पाई , उठ कर देखना चाही पर उठ भी ना सकी शरीर निष्क्रिय जैसा हो गया ।
थोड़ी देर बाद मंदिर की बत्ती भी बुझ गई ,
घना अंधेरा छा गया । मन में चेतना थी पर शरीर बिल्कुल काम नहीं कर रहा था । उसे ऐसा एहसास हुआ कि उसके बगल में कोई आकर उसके साथ छेड़खानी कर रहा है, उसकी देह टटोल रहा है ,शरीर से कपड़ा खींच कर अलग कर रहा है ।वह जोर से चीखना चाही पर नहीं चीख पाई, उठ कर भागना चाही भाग भी नहीं पाई । मन में अब भी चेतना जागृत थी पर शरीर हिलडुल तक नहीं रहा था ।
जिस प्रकार मतवाला हाथी तालाब में कमल को रोंदता है उसी प्रकार घंटों तक उसकी देह को रौंदता रहा । चाह कर भी रामदुलारी कुछ नहीं कर पाई अपनी लुटती हुई आबरू को नहीं बचा पाई । चौथे पहर रात्रि में जब शरीर में कुछ जान आई तो खुद को निवस्त्र और पुजारी को भी विवस्त्र होकर बगल में सोया देखकर क्रोध की ज्वाला भड़क उठी बेजान देह में इतनी शक्ति आ गई कि असुर का वध करने दहाड़ उठी, दौड़कर भगवान शिव के हाथ से त्रिशूल लेकर मां दुर्गा की तरह हुंकारने लगी, निर्वस्त्र शरीर पर कई बार करती हुई दहाड़ कर बोली- बोल पापी ! भगवान के सामने ऐसा पाप करते हुए तुझे थोड़ा भी डर नहीं लगा? बुला देखें आज कौन तुझे बचाने आता है उसे भी यमलोक भेज दूंगी…..।
रामदुलारी साक्षात मां दुर्गा की तरह और वह पाखंडी पुजारी महिषासुर की तरह लग रहा था । उसके दहाड़ने की आवाज सुनकर गांव के सभी लोग दौड़ पड़े । दरवाजा तोड़कर अंदर घुसे तो सभी दंग रह गए , मां दुर्गा महिषासुर का वध कर रही है ऐसा हीं दृश्य सबके सामने दिख रहा था । पल भर में पूरा गांव उमड़ पड़ा ,राजपूत टोली, ततमा टोली और ब्राह्मण टोली सब के सब आ गए । मंदिर का दृश्य से सबको ऐसा लग रहा था जैसे दुर्गा पूजा में होने वाला दुर्गा चरित्र का नांच हो रहा हो….। त्रिशूल के अनेकों वार से पुजारी दम तोड़ चुका था उसकी छाती पर खड़ी रामदुलारी अब भी हुंकार रही थी । परशुराम सिंह जैसे हीं कुछ बोलना चाहा कि गांव वाले उस पर टूट पड़े किसी तरह वह जान बचाकर भाग निकला । सभी रामदुलारी की जय-जयकार करने लगे । कभी रामदुलारी का नाम लेकर तो कभी मां दुर्गे का नाम लेकर सब जय-जयकार करने लगे । किसी को भी यह सुध नहीं थी कि रामदुलारी बिल्कुल निर्वस्त्र है । परशुराम सिंह की पत्नी पार्वती अपनी चुनरी उतार कर रामदुलारी कि देह में लपेटती हुई बोली- उसके तरफ से मैं माफी मांगती हूं रामदुलारी ! आज तुमने गांव को पावन कर दिया है , हमारा धर्मपुर आज सचमुच धर्मपुर हो गया । हम औरतों की आबरू बचाने वाली तुम सचमुच देवी मां का अवतार हो ।
परशुराम सिंह के चचेरे भाई जयराम सिंह दहाड़ कर बोले – भाइयों बहनों , यह रामदुलारी द्वारा पुजारी की हत्या नहीं बल्कि साक्षात मां दुर्गा ने पापी महिषासुर का वध किया है यह पाखंडी का अंत किया है, सचमुच में यह मंदिर आज पावन हो गया है ,आज से रामदुलारी हीं इस मंदिर की पुजारिन होगी । नहीं-नहीं पुजारिन नहीं मठाधीश्वरी होगी…….।
सभी लोग जोर-जोर से मठाधीश्वरी रामदुलारी की जय , मठाधीश्वरी
रामदुलारी की जय करने लगे । रामदुलारी अपनी लूटी हुई इज्जत को बाहों में समेट कर जार बेजार रोने लगी । सभी औरतें उसकी जय जयकार करती हुई कहने लगी नहीं रामदुलारी ! तुम्हारी इज्जत गंगा की तरह पावन है , पापी पाखंडी का अंत करके तुमने इसे और भी पावन बना लिया है , तुमने औरत जाति का मान बढ़ाया है , तुम साक्षात देवी मां का अवतार हो । सचमुच आज से तुम्हीं इस मठ की मठाधीश्वरी हो । फिर से सब मठाधीश्वरी रामदुलारी की जय मठाधीश्वरी रामदुलारी की जय करने लगे…..।