भारतीय ज्ञान परंपरा

भारतीय ज्ञान परंपरा

किसी भी सभ्यता या संस्कृति का उत्थान-पतन उसकी आर्थिक स्थिति और राजनैतिक स्थिति नहीं होती बल्कि ज्ञान परम्परा होती है। भारतीय संस्कृति ने हमेशा ही ज्ञान परंपरा को महत्त्व दिया है। चिंतन की प्राचीन परम्परा ‘उपनिषद’ अर्थात गुरु के पास बैठकर अज्ञान की स्थितियों को नष्ट कर ज्ञान को निरंतर संवाद द्वारा पाने की परम्परा रही है। भारतीय ज्ञान परम्परा का सबसे बड़ा आधार वेद है। ज्ञान का यह स्वरूप तर्कमूलक, मूल्यनिष्ठ और आचरण सापेक्ष है, जिज्ञासामूलक है, और सामाजिक उद्देश्यों से बंधा हुआ है। चिंतन का अर्थ यहाँ मुक्तकामी है। मुक्ति का तात्पर्य यहाँ रूढ़ अर्थों में आध्यात्मिक मुक्ति नहीं है, बल्कि सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति है। ‘सा विध्या या विमुक्तये’ अर्थात विध्या वह नहीं जो बांधती है, बल्कि वह है जो मुक्त करती है। बौद्ध चिंतन-परम्परा में भी शिष्य के अनुभव और मानवीय विवेक को ही प्रमुखता दी गई है। बुद्ध का कहना है कि मनुष्य कि बुद्धि परिक्षणात्मक होनी चाहिए। उसे किसी के कहे पर पूरा विश्वास न करके स्वयं उस बात या तथ्य को परखना चाहिए। चिंतन के मूल्यनिष्ठ लोकवादी पक्ष की यह धारा वेदों, उपनिषदों महाकाव्यों, तथा बौद्ध ग्रन्थों से आगे बढ़ती हुई धर्मशास्त्रों तक चली आई है। इनमें सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों कि शिक्षा दी गई है।

भारतीय ज्ञान परम्परा हजारों वर्षों पुरानी है। ज्ञान परम्परा में आधुनिक विज्ञान प्रबंधन सहित सभी क्षेत्रों के लिए अद्भुत खज़ाना है। भारतीय दृष्टिकोण से ही ज्ञान परम्परा का अध्ययन कर हम एक बार फिर विश्व गुरु बन सकते हैं। हमें अपनी मानसिकता को बदलकर अपने जीवन में भारतीयता को अपनाने कि जरूरत है। पश्चिम के विकासवादी मॉडल को छोडकर ही हम दुनिया में खुशहाली ला सकते है। प्राचीन भारतीय चिंतन-पद्धति के अनुसार सब मतों, सिद्धांतों और दर्शनों को एक साथ रहने-सहने और फलने-फूलने कि पूरी सुविधा है, लेकिन सबका दृष्टिकोण परीक्षणात्मक होना आवश्यक है। उपनिषदों में ‘एषणा’ और बौद्ध दर्शन में ‘परिएसना’ को बहुत महत्त्व दिया गया है। असंग ने लिखा है कि ‘ज्ञेय केवल परीक्षणीय’ है। वसुबंधु कहते हैं कि विध्या और अविध्या दोनों सत्य के प्रति दृष्टिकोण हैं, जिनका अपना-अपना अस्तित्व हैं। अतः अविध्या को विध्या का अभाव मात्र न मानकर सत्य तक पहुचने का एक मार्ग मानना चाहिये और उसके आलोक में जिसे हम विध्या कहते हैं, उसका और गहरा परीक्षण करना चाहिये। इस प्रकार का परिक्षणात्मक दृष्टिकोण ही वैज्ञानिक कहलाता है।

भारतीय ज्ञान-परम्परा के अनुसार परीक्षण और अनुसंधान के फलस्वरूप मनुष्य आज तक जिस निष्कर्ष पर पहुंचा है, वह यह है कि विश्व में जो समन्वय व्याप्त है, उसको अपने पारस्परिक सम्बन्धों मे अनूदित कर समाज का रूप देना है और वैयक्तिक चर्या में अवतीर्ण कर नीति का रूप देना है। इस प्रकार विश्व समाज और व्यक्ति एक ही विरत समन्वय के विभिन्न स्तर है। इनके भीतर समन्वय का भेद गुणात्मक नहीं, परिमाणात्मक है। इससे विश्व अवयवित्व कि सिद्धि होती है और लगता है संसार, समाज और मनुष्य एक ही शरीर के अंग हैं, जिनमें से प्रत्येक एक-दूसरे को प्रभावित करता है और एक-दूसरे कि क्रिया को प्रतिबिम्बित करता है।  इनमें पृथकता होते हुए भी सहयोग होता है, स्वतंत्रता होते हे भी परस्पर आश्रितता रहती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय ज्ञान-परम्परा व्यक्ति को संवादमूलक, विवेकमूलक, ऐच्छिक और मूल्यनिष्ठ बनाने पर बल देती है। उसका ज़ोर व्यक्ति और समाज के विकास अनुकूल बनकर व्यक्ति के भीतर की असीम सृजनात्मक शक्ति को तर्कमूल मानवीय दिशा देने पर है। भारतीय ज्ञान-परम्परा व्यक्ति को सामाजिक रूप से सजग, चेतन और जीवंत सक्रियता मे ढालती है। इस तरह से यह संवादमूलक और मूल्यनिष्ठ चिंतन-दृष्टि एक सामाजिक शक्ति का रूप लेती हुई सामाजिक परिवर्तन का एक अहम और अनिवार्य हिस्सा बनती है। चिंतन की इसी प्रगति का, मानवीय सोच के चलते भारतीय संस्कृति एक उदार, सहिष्णु समावेश और सामाजिक परिप्रेक्ष्य से नियंत्रित रही है, जिसने वैचारिक ही नहीं बल्कि व्यवहार के स्तर पर विविधताओं में एकता का वह आंतरिक सामरस्य पाया है जिसे देखकर दुनिया के लोग सदियों से चकित रहे हैं।

आधुनिकता का केंद्र मनुष्य है, कोई अतींद्रिय परमतत्त्व नहीं, जिसके अनुसंधान में जीवन व्यतीत करना किसी समय सार्थकता का चिन्ह माना जाता था। अतएव आधुनिकता लौकिक मूल्यों से ओत-प्रोत है। धार्मिक या अतींद्रियता सम्बन्धी मूल्यों की अवहेलना इस युग की विशिष्टता है। आज ईश्वर से संबन्धित समस्याओं के स्थान पर मानव के समक्ष मानवीय समस्याएँ हैं। आज का प्रश्न है: मनुष्य क्या है? उसका ढांचा, लक्ष्य, अवस्था, परिस्थिति तथा भाग्य क्या है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए अस्तित्ववादी सत्ता को प्रमाणित करने के लिए प्रयुक्त होती थी। उसका प्रयोग अब मनुष्य के अस्तित्त्व के व्यावहारिक रूप को प्रमाणित करने में किया जाता है।

सदा से दर्शनशास्त्र का लक्ष्य मनुष्य जीवन के रहस्य को उद्घाटित करना रहा है। मनुष्य का दृश्य जगत के साथ सम्बंध प्रच्छ्न्न सा रहता है। मनुष्य जगत में क्यों आया है? उसे क्या करना है? तथा उसका भविष्य क्या है? ये सभी प्रश्न उत्तरापेक्षी हैं। इनका कोई स्थायी समाधान प्राप्त नहीं हुआ है। यह सत्य है कि जिस मनुष्य ने सृष्टि के श्रेष्ठ निदर्शन के रूप में अपने आपको पाया हैं, उसने एक श्रेष्ठतम तत्त्व के अस्तित्व में सहज आस्था का अनुभव किया है। मनुष्य जीवन की पृष्ठभूमि दिव्य है, इस विश्वास में शताब्दियों तक संदेह नहीं था। इस दिव्यता को समझने का प्रयास और उसको मनुष्य जीवन में प्राप्त करने का उपाय, यही दर्शन के अनुशीलन का विषय है।

भारतीय दर्शन का प्रारम्भ वेदों से होता है। वेद भारतवर्ष की, और कदाचित संसार की प्राचीनतम साहित्यिक संपत्ति है। वेद संख्या में चार है- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद। ऋग्वेद इनमें से सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण है। यजुर्वेद में यज्ञों की प्रधानता है। सामवेद संगीत प्रधान है। अथर्ववेद में जादू-टोना, मंत्र-तंत्र आदि का बाहुल्य है। वैदिक परंपरा का विकास चार चरणों में हुआ है, जिन्हें वेद के चार भाग कहा जाता है। प्रथम चरण मंत्र-भाग या संहिता-भाग कहलाता है। द्वितीय चरण ब्राह्मण=भाग तथा तृतीय चरण आरण्यक कहा जाता है। ये तीनों वेद के कर्मकाण्ड है, क्योंकि इनमें कर्म, यज्ञ, दान संस्कार, आदि की प्रधानता है। चतुर्थ अथवा अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। ज्ञान-प्रधान होने के कारण उपनिषदों को वेदान्त भी कहते है। उपनिषदों से ही अधिकतर भारतीय दर्शनों का विकास माना जाता है।

अपनी-अपनी प्रतिभा और संस्कृति की विशेषता के कारण प्रत्येक देश के दर्शन की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। भारतीय दर्शन अत्यन्त प्राचीन है। हमारे वेद उस प्राचीनतम ज्ञान-राशि के भण्डार हैं। हमारे पूर्वज ऋषियों द्वारा अनुभूत अनेक अखण्ड और नित्य सत्यों का उनमें सन्निधान है। श्रुति की मान्यता के साथ-साथ स्वतंत्र चिंतन को सदा प्रोत्साहन मिलता रहा तथा अनेक दर्शन संप्रदायों का उदय और विकास हुआ। इन संप्रदायों की विविधता में कुछ सिद्धांतों का भी विरोध अवश्य है किन्तु उनका मूल एक ही है। समस्त दर्शनों में नैतिक उद्देश्य और सांस्कृतिक दृष्टिकोण की सामान्य एकता है। जीवन के परमार्थ और उसकी प्राप्ति के साधनों की खोज सभी दर्शनों का सामान्य लक्ष्य है।

वैज्ञानिक विकास के चरम की वर्तमान सदी भौतिकता की पराकाष्ठा पर है। ऐसा होने से वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप मानव का जीवन भौतिक रूप से सरल किन्तु नैतिक तथा आध्यात्मिक रूप से निम्नतम अवस्था में जाने के कारण जटिल हो गया है। मानव मानसिक एवं नैतिक समस्याओं के पाश में निबद्ध है; जिससे वैश्विक परिदृश्य में अनेक सामाजिक समस्याएँ आज चिंता का विषय है। आज मानव समाज पर आतंकवाद, युद्ध, अशांति, असुरक्षा, वैमनस्य, अपराध, चोरी, हिंसा, वर्ग-संघर्ष, विभेद, शोषण, बलात्कार, एवं अत्याचार आदि जैसे संकट है। आज पुनः उन मूल्यों के अनुगमन की आवश्यकता है; जिनके सद्वारा भारतीय ज्ञान-परम्परा में विश्व-कल्याण का पाठ प्रशस्त किया गया है। आज पुनः ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया जैसी मंगलकामनाओं से युक्त भारतीय ज्ञान परम्परा को समझने एवं उसमें निहित नैतिक मूल्यों को अपनाने से ही विश्व-कल्याण संभव है।

उल्लेखनीय है कि भारतीय ज्ञान-परम्परा भारतीय दर्शन में समाहित है। कौटिल्य का कथन है कि दर्शन (अन्विक्षिकी-दर्शन) अन्य सभी विषयों के लिए प्रदीप का कार्य करता है। दर्शन का अर्थ हैदृश्यते अनेन इति दर्शनम अर्थात वह प्रक्रिया जिसके अंतर्गत देखा जाए, विश्लेषण, चिंतन, या मनन किया जाए। चिंतन कि एक संज्ञा मीमांसा भी है। मीमांसा का अर्थ है- गहन विचार, परीक्षण एवं अनुसंधान आदि। इस दृष्टि से ज्ञान-परम्परा का दार्शनिक चिंतन तीन अनुभागों में वर्गीकृत है- तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं नीतिमीमांसा। इनके क्रमशः सत, प्रकाश एवं अमरत्व, ये तीन लक्ष्य के रूप में निरूपित किए गए है। सत या तत्त्व; सृष्टि का मूल कारण, ज्ञान या प्रकाश, उस सत को जानने की प्रक्रिया तथा अमरत्व या परमशुभ हेतु, निर्धारित आचरणगत नियम या नीति; ये तीनों ही भारतीय ज्ञान-परम्परा का सार है। भारतीय वाङ्ग्मय में मानव-जीवन के भी ये तीन लक्ष्य ही है। भाव यह है कि ज्ञान एवं नीति के द्वारा व्यक्ति सत कि खोज करें। यही भारतीय ज्ञान परम्परा में निर्देशित है। प्राचीन भारतीय वांगमय चित या चेतना की उच्चतम अवस्था तक उन्नति के पथ का समर्थक रहा है। ज्ञान मात्र भौतिक जीवन को सुखी बनाने हेतु नहीं; अपितु वह है जो शरीर में निबद्ध चेतना को ब्रह्मांडीय चेतना के स्तर पर प्रतिष्ठित करें। भारतीय ज्ञान परम्परा के सार माने जाने वाले उपनिषदों में से एक मुंडक उपनिषद में ज्ञान का स्पष्ट एवं उत्कृष्ट वर्गीकरण किया गया है। यह वर्गिकरण इतना उच्चस्तरीय है कि संसार की किसी भी सभ्यता में ऐसा विवेचन प्राप्त नहीं होता।

इस उपनिषद में मनुष्य-जीवन के समस्त ज्ञान को विध्या कहा गया है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है- अपरा विध्या एवं परा विध्या। मुंडक उपनिषद में एक प्रसंग है कि शौनक ऋषि के पूछने पर महर्षि अंगिरा बोलें कि मनुष्य के लिए जानने योग्य दो विध्याएं हैं- अपरा विध्या एवं परा विध्या। जिसके द्वारा इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी भोगों कि स्थिति, रचना, तथा, नानाविधि उनकी प्राप्ति हेतु साधनों का ज्ञान प्राप्त किया जाए, वह सभी प्रकार का ज्ञान अपरा विध्या कि श्रेणी में आता है। परा विध्या, ब्रह्म विध्या या अध्यात्म विध्या वह है, जिसमें उपर्युक्त सभी लौकिक ज्ञान के स्थान पर ब्रह्म अर्थात जगत के मूल कारण का ज्ञान हो। वस्तुतः परा विध्या एवं अपरा विध्या का वर्गीकरण आध्यात्मिक ज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के रूप में किया किया गया है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि गणित एवं तकनीकि के ज्ञान द्वारा व्यक्ति, भौतिक सुख-सुविधाओं के साधनों का आविष्कार तो कर सकता है, किन्तु भौतिक सुख-सुविधाओं द्वारा आत्मिक शांति प्राप्त नहीं होती। आत्मिक शांति की प्राप्ति हेतु आवश्यक है- व्यावहारिक जीवन को सुव्यवस्थित करते हुए आत्मज्ञान हेतु निरंतर प्रयास करना। इस आवश्यकता का प्रतिपादन उपनिषद साहित्य में भी एक प्रार्थना के माध्यम से किया गया है जिसमे कहा गया है कि हे परमात्मा! हमें असत से सत की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो एवं मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।

असतो मा सदगमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्माअमृत गमय।

 

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रचनाकार

Author

  • Dr. Rishika Verma

    Dr. Rishika Verma is working as Assistant Professor, Department of Philosophy, School of Humanities and Social Sciences in Hemavati Nandan Bahuguna Garhwal University, Srinagar (Garhwal) Uttarakhand, A Central University. She Completed her higher education, B.A., M.A., Ph.D. and Post-Doctoral Fellowship from Banaras Hindu University, Varanasi. Her 30 Research papers are published in National and international, UGC CARE and UGC listed journals. She presented 34 papers in national and international seminars and conferences. She has wirtten 3 books till now. she got many Awards and Samman like International Educationist Award, Best Young Woman Faculty Award, National YogaRatna Award, Sahitya Gaurav Samman, Hindi Utkrisht Sahitya Seva Samman, Woman Icone Award.

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