बह गये हैं याद के घर वक़्त के सैलाब में ।
झर गये सुरख़ाब के पर वक़्त के सैलाब में ।
मौन के पर्वत ठहाकों में कभी के पिस गये ।
सूखते ग़म के समंदर वक़्त के सैलाब में ।
फूल ख़ुशियों के नहीं झरते लबों की डाल से ।
हो गयी मुस्कान बंजर वक़्त के सैलाब में ।
आदमी ख़ुद ही विधाता बन गया इस दौर का ।
हो गये पत्थर भी शंकर वक़्त के सैलाब में ।
राजमहलों से निकल कर झौंपडों तक आ गया ।
शकुनियों का खेल चौसर वक़्त के सैलाब में ।
भेंट लहरों की चढ़े हैं नेह औ सम्मान सब ।
शील के बहते हैं ज़ेवर वक़्त के सैलाब में ।
मिट गये हैं नाम कितने रेत पर लिक्खे हुये ।
रह गये बेजान अक्षर वक़्त के सैलाब में ।
दोस्ती के मायने पीछे कहीं छूटे बहुत ।
बन गये हैं यार विषधर वक़्त के सैलाब में ।
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