पुस्तक- समीक्षा-‘दरिया बन्दर कोट’
लेखिका -उपासना
प्रकाशक -हिन्द युग्म
आम लीक से हटकर , पुस्तक में प्रस्तावना का न होना अचंभित करता है वहीं किसी अन्य महान हस्ती से अपनी पुस्तक का परिचय नहीं दिलवाना भी एक प्रशंसनीय एवं सराहनीय कदम है जो स्वाभाविक तौर पर लेखिका का स्वयं की लेखनी पर विश्वास ज़ाहिर करता है . लेखिका द्वारा भावनाओं को व्यक्त करने में एक खूबसूरती है . वाक्य संयोजन बहुत सुन्दर है दिल की गहराई में उठते हुए भावों को खूबसूरती से शब्दों में बाँधने की कला है उनके पास । हर कहानी एक अलग भाव लिए अलग ही विषय पर है . चंद कहानियों के मूल में नारी और नारी से जुड़े विभिन्न मुद्दों को उठाया गया है .
दरिया बन्दर कोट नाम से कोई कहानी पुस्तक में नहीं है अतः खोजने का प्रयास बेमानी है . शीर्षक के मूल में हमारे आपके बचपन में खेला जाने वह खेल है जिसमे हमें एक से दूसरे खाने में जाना होता था . आपके खाने वाले पकड़ कर रखते , जाने नहीं देते थे और दुसरे खाने वाले अपने यहाँ आने नहीं देते थे . याद आया न. इस खेल को स्त्री की दशा से जोड़ा गया है . आज भी रूढ़ियों को तोड़ कर वर्जनाओं को झटककर स्त्री कुछ करना चाहे , आगे जाना चाहे जो समाज के गले न उतरे तो उसके लिए समाज की अनगिनत बंदिशें तारी हो जाती हैं, उधर तथाकथित प्रगतिवादी उसे पिछड़ा कहकर आगे नहीं आने दे रहे और नारी का यही संघर्ष चलता रहता है जो उसे उस खेल से जोड़ता है . लेखिका के लेखन को किसी भी स्तर पर कमतर आंकना भूल होगी ,भावना प्रधान लेखन है अतः गहराई से समझना होगा. यह 11 कथाओं का संग्रह है स्थापित लेखिका हैं. लेखन का तजुर्बा पुस्तक में स्पष्टतः दृष्टिगोचर है . लेखनी पर अच्छी पकड़ है. वाक्य विन्यास कही कही पर साहित्य के स्वर्णिम जगत के कुछ स्वनामधन्य कथाकारों की शैली की याद ताज़ा करा देते है अब ज़रा सा कहानियों के विषय में संकेत करता चलूँ , सामान्य जन जीवन के बीच की कहानियां हैं एवं हम आप ही पात्र हैं .
‘सर्वाइवल” एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के बेरोजगार युवक की अवसाद और उसके अन्दर घुमड़ते ज़ज्बातों का उल्लेख करती हुयी कहानी है . उसके मन के भाव ,वो क्रोध जो अपनी अकर्मण्यता पर है या सिस्टम पर , सब कुछ सहने का विक्षोभ है या प्रतिशोध अथवा पश्चाताप .कथानक को विस्तृत न करते हुए भावनाओं पर केन्द्रित विचारों को बहुत ही सीमित शब्दों से सुसज्जित किया है. सीमित शब्दों में अपनी भावनाओं का बयां वही लेखक कर सकता है जिसके विचार स्पष्ट हों एवं जो जानता है की उसे क्या कहना है , पृष्ठभूमि दिल्ली की है एवं कथानक की रोचक प्रस्तुति है .
“भ्रम” कहानी है जिसमें नारी मुक्ति एवं सशक्तिकरण का एक अलग ही पहलू सामने रखा है. कथानक में कर्तव्य है ,इंसानियत है वात्सल्य है किन्तु कहीं कुछ खोया है … .बहुत सीमित पात्रों के संग समाज को आईना दिखलाती हुयी कहानी है सन्देश भी है और व्यंग्य भी .
कहानियों के बीच बीच में कुछ गंभीर वाक्यांश व्यवस्थित रूप से संजोए गए है जो कथानक को अतिप्रभावी बनाते है ।
नारी जीवन का सबसे कठिन किन्तु सबसे खुशनुमा गर्वीला पल होता है मां बनना , किन्तु उस के पीछे का दर्द मात्र एक नारी ही सह सकती है और समझ सकती है । माँ शब्द सुन कर वह खुशी उसके सारे दर्द दूर कर देती है इस सब से इतर बहुत कुछ आगे है अत्यंत मार्मिक चित्रण करती हुयी कथा है “ मुक्ति “.
“केनवास की तस्वीरें” नारी मन के अंतर्द्वंद को खूबसूरती से बयां करती है.जहाँ वह एक ओर पति के बाहर अन्य स्त्री से संबंधों को लेकर व्यथित है वही माँ पर हुए अत्याचार उसे उद्वेलित करते हैं और उसका स्वयं का अतीत भी कही न कहीं उसे आत्म ग्लानी का अनुभव कराता है मानो वह अपने भीतर कुछ छिपा कर जी रही हो एक घुटन है रिश्ते में भी और उसके मन में भी . पुरुष को नीचा दिखाने की अथवा स्वयं को प्रमुखता देने की दमित इक्षा भी पात्र में लक्षित होती है.
“सायों के साये “लेखिका की दृष्टि के सूक्ष्म अवलोकन हैं । जिन्हें शब्दों में उकेरा गया है, पत्नी जो पति के किसी अन्य स्त्री से संबंधों को जान कर टूट चुकी है इधर पति उसे बहुत प्रेम भी करता है किन्तु कही न कही कुछ दिरक चुका है गंभीर विषय होते हुए भी कथानक स्वस्थ माहोल में बढ़ता है . दाम्पत्य जीवन में समझौता सामंजस्य एवं सद्भाव बनाये रखने की ज़द्दोज़हद है. लेखिका कहती हैं की जब मन बुझी हुई राख सा भुरभुरा उपेक्षित रंगहीन होता है तब शरण अंधेरे में मिलती है ।
“लड़की , शहर और गुम होती खामोशी” प्यार की अनभिव्यक्ति या प्यार की बेज़ुबानी , उस की गंभीरता एवं पश्चातवर्ती मनः स्थिति का गंभीर वर्णन है . लेखिका संकेतों में गंभीर बातें कह जाती हैं . कुछ वाक्य गौर करने एवं आत्मसात करने योग्य हैं जिन्हें बारम्बार पढने का दिल करता है जैसे हर आदमी के अन्दर एक शहर था जैसे और हर शहर एक आदमी का चेहरा था . और ये भी देखिये : ख़ामोशी को और पनपने देना चाहिए या ये की एक पुरानी ईमारत की ज़र्ज़र दीवार में पीपल का एक पौधा बढ़ रहा था .प्यार खोने कि मायूसी एक वाक्य में भी खूबसूरती से बयान हो सकती है कैसे यह जानने के लिए इस प्रेम कहानी को पढ़ना पड़ेगा।
कहानी “प्रत्युषा- उषा “ छठ के पावन पर्व की पृष्टभूमि में रची गई है। नारी भले ही शहरी आधुनिक हो अथवा ग्रामीण घरेलू महिला,तिरस्कार, सत्कार , स्वाभिमान एवं आदर निरादर तो सभी समझते हैं। नारी के आत्म सम्मान को विशेष रूप से रेखांकित करती कहानी है यह , घर में त्योहार का माहौल है उस के बीच हुए उसके अकारण निरादर को वह कैसे संतुलित रहते हुए बर्दाश्त तो करती है ताकि घर में त्योहार पर कुछ अपशगुन न हो सामाजिक मान मर्यादा बनी रहे और समय आने पर दोषी को कैसे उसकी धृष्टता का एहसास करवाती है सटीक वर्णन है एवं बहुत कुछ सिखा भी जाता है , क्षेत्रीय भाषा का पुट थोड़ा ज्यादा है सो शब्द कहीं कहीं थोड़े समझने में मुश्किल हो सकते हैं किन्तु भावनाएं बहुत स्पष्ट हैं नारी शक्ति एवं दाम्पत्य जीवन के खट्टे मीठे पलों का , उतार चढ़वों का सुंदर प्रस्तुतिकरण है।
एक और कहानी है “पटकथा की सहनायिका” है जिसमें किशोर अवस्था का प्यार या कच्ची उम्र का आकर्षण कहें , शायद इस कोमल से एहसास की उस प्यार की उभरती हुयी कोपलें और फिर उन एहसासों का उस ख्वाब का टूटना और भ्रम का सच्चाई से रूबरू होना । कच्ची उम्र के प्यार की मासूमियत और उस दौर में दिल टूटने की प्रतिक्रिया का वास्तविकता के बेहद करीबी वर्णन है और कहीं न कहीं हर उस दिल को कहानी से जोड़ता है जिसे उस उम्र में प्यार हुआ था. बेहद रोचक एवं अप्रत्याशित अंत है
यूं तो संग्रह की हर कहानी अपने आप नें एक नयापन लिए हुए और कुछ खास है, किन्तु समस्त श्रेष्ट कहानियों में से भी “सुनो सौरभ” को प्रथम स्थान पर रखना संभवतः निर्विवादित होगा .वात्सल्य रस से तो सभी परिचित है किंतु गुरु शिष्य के बीच जो प्रेम है जो एक अनकहा संबंध है शिष्य का गुरु के प्रति जो समर्पण है या गुरु का शिष्य के प्रति लगाव और चिंता है उसे क्या नाम दें । कहानी एक ऐसे ही नादान अबोध नन्हे बालक की है जिसे अन्य सभी मंदबुद्धि मानते है किंतु नायिका उस को उस की भावनाओं को समझती है वह उस के अंतर्मन के दर्द को पढ़ पाई है ,उसकी भावनाओं को समझ पाई है , कदाचित इसी लिए उसका झुकाव या जुड़ाव उस नादान बालक से है । औरों द्वारा बच्चे का तिरस्कृत होना उन्हें असहज कर जाता है , उस बालक पर उनका स्नेह है मातृवत तो नही कहूंगा किन्तु उस से कमतर भी नही है । कहानी के मूल में शासकीय सेवा में भर्ती की रेलपेल या धांधली के किस्से साथ साथ चलते हैं । एक बहुत ही उम्दा डूब कर पढ़ने वाली कहानी है कृपया इत्मीनान से पढ़े तभी इस के रस का वास्तविक आनंद आप ले सकेंगे।प्रत्येक कहानी का अपना अलग ही कलेवर है अलग ही विचारधारा दर्शाती खूबसूरत शैली है । सुंदर शब्दों का चयन करते हुए वाक्यों की सरलता एवं सुगम वाक्य विन्यास का ध्यान रखा गया है अतः क्लिष्टता से कहानियाँ बची हुई हैं ।
कहानियों को जैसा मैंने समझा समीक्षा रूप में प्रस्तुत है , शेष , आप स्वयं पढ़ें और निर्णय लें । पर पढ़ें जरूर । पुस्तक amazon पर उपलब्ध है ही
सादर,
अतुल्य
23 फरवरी 2023
उज्जैन {म . प्र .}