सनातन को मापने के तराज़ू निकल पड़े।
ये देखकर मेरे भी अब आंँसू निकल पड़े।
मासूम हाथ में तो थमा दे क़लम कोई,
ऐसा न हो कि हाथ में चाकू निकल पड़े।
पहरा लगा है इश्क़ पे जब भी यहांँ वहांँ,
तोड़कर बंदिशें सब मजनू निकल पड़े।
मुकद्दर में तेरे हो भले कुछ नहीं मगर,
निकलो तो ऐसे जैसे कि जुगनू निकल पड़े।
कौन कहता है ज़िन्दगी आसान है बहुत,
पसीने की जगह ज़बीं से ख़ूँ निकल पड़े।
नफ़रत के सिलसिले को हमें तोड़ना है तो,
मुस्लिम का हाथ थाम के हिन्दू निकल पड़े।
तुझे ढूंढता हूँ इस उम्मीद पे के बस,
होने को रूबरू कोई पहलू निकल पड़े।
मंदिर की बात आई तो भक्तों की टोली में,
करने को राम सेवा ये साधू निकल पड़े।
रो रो के भटकता जो ‘अकेला’ ही रह गया,
भाई को रोता देख के आँसू निकल पड़े।
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