कल मैं छोटा सा नन्हां सा अनभिज्ञ शिशु था ,
कहां थी पहचान ,अपनों और परायों की ,
जिनसे थोड़ा सा लाड़ प्यार पा लिया उन्हीं को अपना समझ बैठा ,
मां की अंगुली थाम कर चलना सिखा ,
बाप के कंधों पर दुनियां का सैर सपाटा किया ,
धीरे-धीरे अनभिज्ञ से भिज्ञ होने लगा ,
रिश्तों नातों की अहमियत समझने लगा ,
उम्र के साथ-साथ अनुभव भी सीढ़ी दर सीढ़ी उठता गया ,
जिस अंगुली ने चलना सिखाया उसे अब सहारे की जरूरत पड़ने लगी ,
वह कन्धा भी कमजोर हो गया ,
अब तो गमछे का भार भी असह्य होने लगा ,
मैं सबका सहारा बन गया ,
खुश था ऋण चुकाने का अवसर जो मिला,
बच्चों का पिता बन कर भी बच्चा हीं रहा ,
सर पर बूढ़े मां बाप के हाथ जो थे ,
फिर एक दिन वो नहीं रहे ,
सर से प्यार के उमड़ते घुमड़ते बादल छट गए ,
अब मैं बच्चा नहीं रहा ,
दुनियांदारी और कर्तव्यों का भार ढोते-ढोते कमर झुकने लगी ,
ऐसा लगने लगा कि अब मुझे भी सहारे की जरूरत है ,
जिन अंगुलियों को थाम कर मैंने चलना सिखाया उन्हें कहां खोजूं ,
भौतिकता की आंधी में वे शायद खो गए ,
ऊंची महत्वाकांक्षा के नीचे दब कर खुद को हीं नहीं संभाल पा रहे हैं ,
मैं घर के किसी कोने में लाठी खोजने लगा ,
शायद वही बुढ़ापे का सहारा बन जाय ,
पर नहीं मिली, मिलती भी कैसे ,
मेरे मां-बाप को तो कभी लाठी की जरूरत हीं नहीं पड़ी ,
उनकी लाठी मैं जो बन गया था ,
घर में सुख साधन का अंबार है ,
फिर भी मन का एक कोना खाली खाली सा है ,
यही तो है —कल ,आज और फिर कल