मैंने देखा…
हिमकर की उस प्रशांत रात्रि में
मन की धवल, तन कोमल-श्यामल
चहरे पर मुस्कान मनोहर
गाती एक गीत जाती थी
मेरे भ्रमित-पथिक मन को,
जैसे आई वह रह दिखाने
उसके गीतों की स्वर-लहरी में
सूना मन ऐसे खिल आया
चाँदनी में कुमुदिनी-दल ज्यों
सूर्य-किरण से सरोरुह ज्यों
नीरद देख वन-मोर पंख ज्यों
भक्त देख प्रभु-ह्रदय-कमल ज्यों
मैंने भी गदगद कंठों से
चाहा उसे कि पास बुलाऊँ
तभी कहीं से आहट आई
टूटा ख़्वाब मेरा वह सुन्दर
आँख खुली तो मैं ही मैं था
नहीं कहीं शशि-रमणी-कोमल ||
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