दिव्य मणि शोभित शुभी अभिसारिका सी।
अवध की महानायिका परिचारिका सी।।
आ गयी थी देखने पितु मातु संग।
गौरी पूजन के समय वरदान मांगा,
जानकी ने बहनों का सम्मान मांगा।
बन गयी वह भरत की हृदिहारिका सी।।
अवध की०।।
भरत के संग परिणय-प्रण में आगयी वह,
दोनों कुल उद्धारिका सी छा गयी वह।
मंथरा ने महल में विष घोर डाला,
ज्येष्ठ के वनवास ने झकझोर डाला।
अग्रजा के चरण की अनुचारिका सी।।
अवध की०।।
पति होते रघुदीप तब वन जा न पाते,
कमल आसन शायिनी पग दुख न पाते।
क्या करूं असहाय हूं तुम आ भी जाओ,
जाकर रघुनंदन को घर वापस ले आओ।
जी रही हूं मीन जल बिन चारिका सी।।
अवध की०।।
पितु मरण से अधिक दुःख वनवास सुनकर,
वैदेही बिन क्या करूंगी जीवित रहकर।
स्वामी अब लौटाइये सम्राट को ,
उज्जवल रखिये वंस के ललाट को ,
प्रतिव्रत नभ में संचरित निहारिका सी।।
अवध की०।।
राम से मिलकर भरत रोये बहुत,
क्या गये ननिहाल पर खोये बहुत।
बस खड़ाऊं ही मिला विश्वास में,
नंदी गांव प्रभु मिलन की आस में।।
राजलक्ष्मी वल्कल वसन धारिका सी
अवध की०।।
शेष ये कैसी व्यथा संयोगिनी के सामने,
कंत भी बसंत भी रति काम लगे हारने।
बन के संन्यासिन बिताया चौदह वर्ष,
सारा वैभव सामने त्यागा सहर्ष,
राज दुहिता प्रजावत व्यवहारिका सी।।
अवध की०।।