प्रकृति का मानव–जीवन में अमूल्य योग रहा है – सृष्टि के आरम्भ से ही | प्रकृति जीवन और साहित्य का प्रमुख उपादान रही है | साहित्य के क्षेत्र में प्रकृति-चित्रण का विशेष महत्त्व है | विश्व की प्रत्येक भाषा -साहित्य में इसकी विस्तृत परम्परा मिलती है |प्रकृति-चित्रण की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति संस्कृत-साहित्य में हुई है और महाकवि कालिदास इसके श्रेष्ठतम प्रस्तोता के रूप में याद किये जाते हैं | उनके काव्य में प्रकृति अपनी सहज नैसर्गिक सुषमा से ओत्-प्रोत् ,अत्यंत कमनीय रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती है |
खड़ीबोली हिन्दी-साहित्य में भी ‘आदिकाल’ से ‘आधुनिककाल’ तक प्रकृति-चित्रण की विस्तृत परम्परा के दिग्दर्शन होते हैं | हिन्दी के विकास के साथ ही हिन्दी-साहित्य का प्रकृति-चित्रण भी उतरोत्तर सूक्ष्म,संश्लिष्ट और परिष्कृत होता गया है | इस दृष्टि से ‘छायावाद’ हिन्दी-साहित्य सबसे महत्त्वपूर्ण काल माना जाता है और ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ पंत इसके सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं | हिन्दी-साहित्य में छायावाद पहला काल है जिसमें प्रकृति इतनी सहज,मनोरम, कमनीय,माधुर्ययुक्त और नैसर्गिक आकर्षण-संपूरित होकर साहित्यिक मंच पर उतरती है तथा अपनी स्वच्छंदता और प्रकृत् सौन्दर्य से मर्मज्ञों को अभिभूत कर देती है |
छायावाद के उपरांत प्रकृति एक नवीन भावबोध के साथ, नवीन कलेवर में, स्वाभाविक शोभायुक्त होकर पूर्व से ज्यादा सहज सौन्दर्यपूर्ण होकर अपने विविध आयामी स्वरूप में उपस्थित होती है और कवि-गीतकार गोपाल सिंह ‘नेपाली’ इसके अन्यतम उद्गाता के रूप में साहित्य-पटल पर पटाक्षेप करते हैं | नेपाली छायावादोत्तर काल के प्रतिनिधि गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं | आलोचकों के मत में -“उत्तर-छायावादी काव्य उमंग,उत्साह,प्रेम और नैसर्गिक सौन्दर्यबोध का काव्य है |”1 इनके काव्य में प्रकृति,प्रेम और राष्ट्रीयता की नैसर्गिक त्रिवेणी प्रवाहित होती है | जो हृदय को बरबस अपनी ओर खिंच लेती है | कवि की इस प्रवृत्ति को लक्ष्य कर ‘पंतजी’ ने लिखा है – “आपका कवि-कंठ,’निर्मल निर्झर के समान’,अवश्य ही मंसूरी की तलहटी में फूटा होगा | इसलिए आपकी रचनाओं में जो उन्मुक्त वातावरण एवं स्निग्ध अनिलाताप मिलता है,वह पाठक के हृदय की खिड़की खोलकर,’नरम दूब’ बिछी राहों से,’विलास की मंसूरी’से ’जंगल की मंसूरी’ में ले जाकर,प्रकृति की मनोरम क्रीड़ा-भूमि में छोड़ देता है,जहां ‘जंगल की हरियाली अंचल पसार’ कर उसका स्वागत करती है | ‘जामुन तमाल इमली करील,ऊपर विस्तृत नभ नील-नील’,’ऊँचे टीले’,’गिलहरियों के घर’ मन को मोहते हैं | ‘पीले-पीले लाल-लाल ,फल-फुल मुकुल से लदी डाल’ में ‘मधुप गुनगुन’,’फुलचुग्गी रुनझुन’ करती,’बुलबुल-सुग्गे चुन-चुन’ फल खाते हैं | जहाँ ‘द्रुम में दाड़िम गोल-गोल’, सेब, किशमिश, अनार से भी मीठे देहरादून के मधुर बेर खाने को मिलते हैं | जहां झीलों में जल, जल में मृणाल हैं | घर बसाने की प्रतीक्षा में डालों पर बैठे पक्षियों के जोड़े ‘चोंचों से पर सुहला-सुहलाकर’,प्रेम विह्वल हो कल-कूज करते हैं |”2
हिन्दी-साहित्य में ‘पंत’ के बाद नेपाली को उनके प्रकृति-चित्रण के लिए सबसे पहले याद किया जाता है | प्रकृति का नेपालीजी के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है | स्वयं कवि के शब्दों में –“यह हरी-हरी दूब की ही महिमा है कि आज मेरे हाथ में बंदूक के बदले लेखनी है |”3
नेपाली का काव्य जीवन के सहज सौन्दर्य-बोध का काव्य है | जिसकी सर्वाधिक जीवंत प्रस्तुति उनके प्रकृति-काव्य में द्रष्टव्य है | इनपर प्रकृति का अनन्य प्रभाव है | ये प्रकृति-सौन्दर्य के अन्यतम उद्गाता हैं | प्रकृति इनके काव्य को आद्योपांत आच्छादित किये है | कवि का साहित्य-सुमन प्रकृति की नैसर्गिक सुषमा के बीच पल्लवित-पुष्पित होता है|प्रकृति को कवि ने श्रेष्ठतम स्थान दिया है तथा प्रकृति और प्रेम की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए लिखा है –
“जीवन में क्षण-क्षण कोलाहल,ज्यों सुख त्यों दुख,सुख-दुःख समान
आती संध्या जाता विहान, जाती संध्या आता विहान
इसलिए जगत में दो ही तो कुछ शांति कभी देनेवाले
है एक प्रकृति की मृदुल गोद, दुसरा प्रेम का मधुर गान ||”4
` कवि के प्रथम काव्य-संग्रह (‘उमंग’,1934) की प्रथम कविता ‘उमंग’ से ही प्रकृति के प्रति सम्मोहन,प्रकृति-प्रियता का भाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है | प्रकृति से जैसे वे एकमेक हो जाते हैं | प्राकृतिक सुषमा पर कवि के मन की उमंग रीझ कर,स्वयं को भूल मानो फूल हो जाती है –
“ऐसी मेरे मन की उमंग
रहती न,कहाँ किसके न संग
मेरे मानस का मुकुल मूल
था डाली पर रे रहा झूल
वन की सुषमा पर रीझ, भूल
खिल उठा तुरत हो गया फूल
\ ये पीले, नीले , लाल रंग
जैसी मेरे मन की उमंग ||”5
प्रकृति कवि की प्रेरक शक्ति के रूप में भी उपस्थित होती है | उसके साहचर्य से कवि का जीवन के प्रति वृथा विराग नष्ट हो जाता है तथा राग उत्पन्न होता है और वह अपने मन की सोई उमंग का आह्वान कर उठता है –
“सोई उमंग उठ जाग, जाग
जीवन से क्यों इतना विराग
आ मधुप, मुकुल-मन खोल-खोल
द्रुम में पक दाड़िम गोल-गोल
तरु के नव-पल्लव डोल-डोल
वन-वन में पंछी बोल, बोल
रे कब से उजड़ा पड़ा बाग
कोई उमंग, उठ जाग, जाग ||”6
…पंछियों को गाने के लिए पुकारने लगता है–
“रे पंछी, मंजुल बोल बोल
सुख मना मोद से कर किलोल
पक रहे सरस मंजुल रसाल
हैं पीले-पीले, लाल-लाल
फल-फूल मुकुल से लदी डाल
झीलों में जल,जल में मृणाल
द्रुम में ये दाड़िम गोल-गोल
रे पंछी मंजुल बोल बोल ||”7
नेपाली के प्रकृति-चित्रण का परिदृश्य बहुत व्यापक है | उसमें नैसर्गिक सौन्दर्ययुक्त प्राकृतिक दृश्यों की भरमार है | प्रकृति उनके काव्य में विविध आयामी स्वरूप में अभिव्यक्त है | वे सिर्फ प्रकृति का वर्णन ही नहीं करते वरन् उसके महत्त्व को रेखांकित भी करते हैं |‘पीपल’ का भारतीय सभ्यता-संस्कृति में विशेष महत्त्व है | धार्मिक,पौराणिक और आयुर्वेद के ग्रंथों में इसके गुणों का विस्तृत वर्णन मिलता है जो इसे विशेष बना देता है | किन्तु नेपाली अपने वर्णन से इसे सहज-स्वाभाविक बनाकर मानवीय-अनुभूतियों के ज्यादा करीब ला खड़ा करते हैं –
“पीपल के पत्ते गोल-गोल
कुछ कहते रहते डोल-डोल
जब-जब आता पंछी तरु,
जब-जब जाता पंछी उड़कर
जब-जब खाता फल चुन-चुनकर
पड़ती जब पावस की फुहार,
बजते जब पंछी के सितार
बहने लगती शीतल बयार
तब-तब कोमल पल्लव हिल-डुल,
गाते सर्सर,मर्मर मंजुल
लख-लख,सुन-सुन विह्वल बुलबुल
बुलबुल गाती रहती चह-चह,
सरिता गाती रहती बह-बह
पत्ते हिलते रहते रह-रह ||”8
नेपालीजी ने प्रकृति के विभिन्न उपादानों का वर्णन किया है | उनकी स्पष्ट मान्यता थी की प्रकृति से विलगाव मानव के नाश का कारण हो सकता है | प्रकृति मानव के अस्तित्व के लिये अनिवार्य रूप से हितकारी है | इसके आभाव में मानव-जीवन की स्वाभाविक सुन्दरता, आनंद और वह सब कुछ जो मानवमात्र के लिए उपयोगी है विनष्ट हो जायेगा | नेपालीजी की कविताएँ इस दिशा में स्तुत्य प्रयास करती दिखाई देती है | इनकी कविताएँ सौन्दर्य के प्रति, जीवन के प्रति और इस लिए अनिवार्य रूप से प्रकृति के प्रति भी प्रेम उत्पन्न करती हैं | प्रकृति हमारे अस्वस्थ भावों, मनो-विकारों और शारीरिक रोगों के लिए औषधि के समान होती है | प्राकृतिक दृश्य मन-प्राण को तरोताजा कर, आलस्य दूर कर स्फूर्ति संचरित करती है तथा प्रकृति संरक्षण के प्रति जागरूक भी | ‘सरिता’ की कलकलनिनादिनी,कल्याणकारी धारा-सौन्दर्य बरबस अपनी ओर आकर्षित करती है – “यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल, कितना निर्मल
हिम के पत्थर वे पिघल-पिघल
बन गए धरा के वारि विमल
सुख पाता जिससे पथिक विकल
पी-पीकर अंजलि भर मृदु जल
नित जलकर भी कितना शीतल
यह लघु सरिता का बहता जल
कितना कोमल, कितना वत्सल
रे जननी का वह अन्तस्तल
जिसका यह शीतल करुणा जल
बहता रहता युग-युग अविरल
गंगा, यमुना, सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल ||”9
नेपालीजी चूँकि छायावादोत्तर काव्य-धारा के प्रतिनिधि हस्ताक्षर थे,जिसका भाव-बोध छायावादी भाव-बोध से परे है| छायावादी भाव-बोध कल्पना और सौन्दर्य को ज्यादा महत्त्व देता है इसलिए वहां ‘जूही की कली’ प्रासंगिक है | लेकिन यहाँ यथार्थ और मानव कल्याण का ज्यादा महत्त्व है | अतः वहीँ कवि की नजर में –‘पीपल,हरी घास,मौलसिरी,बेर’- आदि ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं | ‘देहरादून के बेर’ की प्रशंसा करते हुए कवि लिखते हैं –
“देहरादून के मधुर बेर
जंगल में मिलते ढेर-ढेर
जब आता है रे शरद् काल
लदती बेरों से डाल-डाल
लख पीले-पीले लाल-लाल
हो जाती मंसूरी निहाल
थकते न नयन ये हेर-हेर
देहरादून के मधुर बेर ||”10
कवि को गुलाब के लाल-सुर्ख फूलों से कहीं ज्यादा खुबसूरत ‘मौलसिरी’ के लाल फूल लगते हैं –
“उस दिन के वे फल लाल-लाल
रहती थी जिनसे लदी डाल
पकते रहते थे फल मंजुल
आया करते सुग्गे, बुलबुल
सुख पाते थे पत्ते हिल-डुल
करते हम भी क्रीड़ा मिल-जुल
था जिनसे यह जीवन निहाल
उस दिन के वे फल लाल-लाल ||”11
प्रकृति कवि को ईश्वरीय शक्ति से साक्षात् कराती है | उसकी करुणा का परिचय देती है | प्रकृति-निरीक्षण से कवि के हृदय में ‘ईश्वर’ के प्रति प्रणम्यता का भाव उत्पन्न होता है और कवि अभिभूत होकर ईश्वरीयसत्ता के प्रति अपनी कृतज्ञता, अकिंचनता प्रकट कर उठता है –
“प्रभू की असीम करुणा कुछ-कुछ होती है अब रे मुझे भास
सुख, सुषमा, शोभा, सुन्दरता बिखरी हैं मेरे आस-पास
फिर मुक्त कंठ से इन सबका गुण-गान मधुर मैं करूँ क्यों न
दी बिछा उसीने इसीलिए मेरे आँगन में हरी घास
|| || || ||
जानता कहाँ, कैसे, कब मैं, है जीवन इतना मधुर-मधुर
जो उगा न देता वह प्रभू रे मेरे आँगन में हरी घास ||”12
नेपालीजी स्वाभाविकता के समर्थक थे | चाहे वह कलागत स्वाभाविकता हो या अभिव्यक्तिगत | इसलिए इनके काव्य में प्रकृति के स्वाभाविक चित्र ज्यादा हैं | इन्होंने प्रकृति के एक-से बढ़कर एक अनोखे चित्रों से साहित्य को सुशोभित किया है | ऋतुओं के राजा ‘बसंत’ का जीवन, साहित्य और प्रकृति में विशेष महत्त्व है | खेतों में फसलें लहलहा रही होती हैं और लोग ‘फाग’ (फाल्गुन के महीनों में गाए जानेवाले प्रेम,मस्ती और उल्लास के ग्राम्यगीत) गा रहे तथा ‘होली’ खेल रहे होते हैं –
“ऋतु बसंत की,दिन फागुन के
मधुबेला जीवन की
मधुर घड़ी हँसते यौवन की
दुनिया अपने मन की
एक बार फिर होले होली
हंस दे यौवन भोला
रँग ले आज बसंती रंग में
अपना-अपना चोला
बचपन,जरा,विहँसता यौवन
हो-हो कर मस्ताना
खेलें होली मिल आपस में
गावें मीठा गाना ||”13
…प्रकृति नवसृंगार कर रही होती है | पल्लव,आम्रमंजरियाँ,कलियाँ,कोयल की कूक सृष्टि में मादकता का संचार कर रही होती है और कविजन अपनी तुलिका पर बसंतागमन के चित्र सहेज रहे होते हैं | नेपालीजी ने भी इसके प्रभाव का सुन्दर चित्र खिंचा है –
“गर्मी वर्षा से भींग चली,
पावस बादल के साथ गया !
कन्धों पर पीले पात धरे
अब ठण्डी भी जा रही आज
पतझड़ से खिन्न हुआ था मन,
आई थीं भीग-भीग आँखें !
ठण्डी बयार झोंके दे-दे
दुखिया को समझा रही आज !
आया वसन्त मच गयी धूम,
सज गई प्रकृति की रंगभूमि !
हैं खिले फूल तो फूल, किन्तु
यह कलि गजब ढा रही आज ! ||”14
…’बसन्त’ में कली ही नहीं हृदय के मधुर भाव-पुष्प भी खिल जाते हैं –
“बहुत दिनों के बाद आज ही
मेरी मधुॠतु आई
आज कली मेरे जीवन की
जीवन में खिल पाई
भरा आज ही मानसरोवर
मीठे निर्मल जल से
हुआ आज ही कानन मुखरित
सरिता के कल-कल से
अहा,आज इस जीवन में
नन्दनवन फूल रहा है
मस्ती के पलने पर मेरा
यौवन झूल रहा है ||”15
उनके प्रकृति चित्रण की विशिष्टता को रेखांकित करती ये पंक्तियाँ प्रासंगिक हैं -“नेपाली प्रकृति की समग्रता के कवि हैं | प्रकृति के एक-एक तत्व से,एक-एक भंगिमा से वे पूरी तरह परिचित हैं | वे इनका महत्त्व समझते हैं,इनकी भाषा जानते हैं,इनकी कोमलता-कठोरता का रहस्य उन्हें मालुम है | मंसूरी की ‘तलहटी’ का नैसर्गिक सौन्दर्य उनकी भावुकता को उद्बुद्ध कर देता है | वे इस सौन्दर्य को स्वर देने के प्रयत्न में कवि बन जाते हैं ||”16
“फूटा है मेरा कण्ठ यहीं रे निर्मल-निर्झर के समान
सिखा है मैंने यहीं तीर पर सरिता के मृदु सरल गान
सिखलाया है नित यहीं मुझे पंछी ने उड़ना पाँख खोल
है हुआ यहीं क्रीड़ा, निकुंज में मेरे जीवन का विहान ||”17
कवि प्राकृतिक दृश्यों में इतना तन्मय हो जाता है कि उसे प्रकृति की विविध हलचल-क्रियाएँ स्वयं के भावों का प्रकटीकरण लगता है – “मैं सरिता के कलकल-स्वर में अपना ही गायन सुनता हूँ
चली जा रही चपल लहरियाँ
थिरक रही हैं जल की परियाँ
कलकल-छलछल से मुखरित हो
उठीं धारा की शैल-शिखरियाँ
तट पर जल की बूँद-बूँद में
पग-पायल की ध्वनि सुनता हूँ
नववसंत वन में आता है
झुरमुट से पंछी गाता है
कोकिल का पंचम-स्वर वन के
मन की कली खिला जाता है
मैं अपने झंकृत प्राणों में
कोकिल का कूजन सुनता हूँ ||”18
नेपालीजी का ‘पंछी’ संग्रह (1934) विशुद्ध प्रकृतिपरक कविताओं का अनूठा संग्रह है | वैसे तो यह प्रेम-काव्य है, किन्तु इसके प्रथम पंख में कवि ने प्रकृति का मनमोहक वर्णन किया है | आलोचकों के मत में – “वन की हरियाली उनके कवि-मन को दृष्टि देती है,सौन्दर्य की सहजता से उनका काव्य-विवेक पुष्ट होता है |”19‘कुसुमवन’ की शोभा का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है –
“सरिता के उस पार कुसुम-वन सुन्दर फूल रहा था,
जहाँ पहुँच सौन्दर्य विश्व का निज पथ भूल रहा था;
डाल-डाल पर कुसुम मनोहर हँस-हँस झूल रहा था,
अपने नवयौवन के आगे जग को भूल रहा था |
तरह-तरह के सुमन खिले थे, फूट रही थीं कलियाँ,
गम-गम गमक रही थीं सौरभ-सुरभित वन की गलियाँ,
सुमन कपोलों पर मधुपों की होती थीं रँगरलियाँ,
मानो वहाँ किसी ने रख दी थीं मिश्री की डलियाँ !
भौंरों की मृदु गुंजारों से वन था मुखरित होता,
इधर-उधर बहता था चंचल निर्मल जल का सोता;
जो भोई आता मोहित होता, अपनी सुध-बुध खोता,
कहीं गा रही मंजुल मैना, कहीं बोलता तोता |”20
कवि प्रकृति के प्रति इतना सम्मोहित है की उसे संसार की समस्त सुख-सुविधाओं को छोड़ प्रकृति की गोद में, लता-गुल्मों की आड़ में, जीवन जीना कहीं ज्यादा सरल,पावन और श्रेष्ठ लगता है –
“कंकड़-घूल,फूल-काँटों का वह वन-देश निराला रे,
चंचल जल में पाँवडुबोए खेल रही वन-बाला रे;
आँखों के नन्हें घेरे-सी घेर रही गिरी-माला रे,
निर्झर-तीर शिला पर बैठा कोई गानेवाला रे!
मधुर पदध्वनि,मधुर प्रतिध्वनि मुखरित मृदु संगीत परम !
कुंज-लता की एक आड़ में जीवन सरल पुनीत परम !”21
….. झरना के शीतल जल को अपने हाथों से पीकर अपने जीवन की थकान मिटाना व उद्वेग रहित होना चाहता है –
“झरो-झरो ऐ निर्मल झरने, छलक पड़ो वन में छलछल
फूटो-फूटो अब वसुधा से, छलक पड़ो वन में झलझल
मैं भी पी पाऊँ जीवन में एक घूँट झरने का जल
थकन दूर हो जीवन भर की, मन तुझ-सा ही शीतल ||”22
इस प्रकार नेपाली जी के काव्य का आद्योपांत अध्ययन-विश्लेषण के उपरांत हम पाते हैं कि वे प्रकृति-चित्रण की सम्पूर्णता के कवि हैं | निष्कर्षतः –“नेपाली के प्रकृति-चित्रण का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे प्रकृति के समग्र कवि हैं,संपूर्ण प्रकृति के कवि हैं | उनकी समस्त कविताओं का अर्धांश प्रकृति को ही समर्पित है | इतना ही नहीं, अपने पहले संग्रह से लेकर अंतिम कृति तक उन्होंने प्रकृति का चित्रण किया है | यह प्रमाण है कि प्रकृति के प्रति नेपाली का प्रेम किसी कालावधि या प्रवृत्ति के आग्रह के कारण नहीं है | वे नैसर्गिक रूप से प्रकृति के कवि हैं उनकी कविताओं में प्रकृति का प्रेम है और प्रेम की प्रकृति है | इस अर्थ में वे आधुनिक हिन्दी-कविता में न केवल प्रकृति के प्रतिनिधि कवि हैं बल्कि उसके अकेले संपूर्ण कवि भी हैं |”23
सन्दर्भ :
1.डॉ.राय सतीश कुमार,गोपाल सिंह ‘नेपाली’,प्रथम संस्करण,2008,किताब पब्लिकेशन,मुजफ्फरपुर-नई दिल्ली,पृ. ; 24
2.पंत सुमित्रानंदन,स्नेह-शब्द,उमंग, संपादक,नंदन नंदकिशोर,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. ; 7
3.नेपाली गोपाल सिंह,स्वर-संधान,रागिनी,संपादक,नंदन नंदकिशोर,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण :2011,पृ. : 5
4.उमंग,कविता : नौका-विहार,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण,2011,पृ. : 66
5.उमंग,कविता : उमंग,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 13
6.उमंग,कविता : गीत,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 14
7.उमंग,कविता : पंछी,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 40
8.उमंग,कविता : पीपल,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 53
9.उमंग,कविता : सरिता,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 58-59
10.उमंग,कविता : बेर,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण : 2011,पृ. : 62
11.उमंग,कविता : मौलसिरी,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण : 2011,पृ. : 39
12.उमंग,कविता : हरी घास,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण : 2011,पृ. : 51
13.उमंग,कविता : होली,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 73
14.नीलिमा,कविता : यह कली ग़ज़ब ढा रही आज,नंदन नंदकिशोर,संपादक,पुस्तक भवन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 25
15.उमंग,कविता : बसन्त,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण : 2011,पृ. : 72
16.डॉ.राय सतीश कुमार,मुजफ्फरपुर-नई दिल्ली,गोपाल सिंह ‘नेपाली’,प्रथम संस्करण,2008,किताब पब्लिकेशन,पृ. ; 25
17.उमंग,कविता : मंसूरी की तलहटी,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 61
18.पंचमी,कविता : प्रतिध्वनि,नंदन नंदकिशोर,संपादक,साहित्य संसद,नई दिल्ली,प्रथम संस्करण : 2011,पृ. : 49
19.डॉ.राय सतीश कुमार,गोपाल सिंह ‘नेपाली’,प्रथम संस्करण,2008,किताब पब्लिकेशन,मुजफ्फरपुर-नई दिल्ली,पृ. ; 26
20.पंछी,पहला पंख(2,वनराजा),नंदन नंदकिशोर,संपादक,पुस्तक भवन,नई दिल्ली, संस्करण : 2011,पृ. : 21
21.रागिनी,कविता : वनश्री,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 23
22.उमंग,कविता : प्रेम,नंदन नंदकिशोर,संपादक,राजदीप प्रकाशन,नईदिल्ली, संस्करण : 2011,पृ. : 27
23.डॉ.राय सतीश कुमार,असंकलित रचनाएँ,भूमिका,पृ. ; 23