बात उस समय की है ,जब मैं पांचवी कक्षा में पढ़ती थी। बचपन से ही चॉक के प्रति मेरे मन में विशेष आकर्षण रहा है । कक्षा में प्रवेश करते ही मेरी नज़रें टेबल पर रखी चॉक पर टिक जाती, परंतु कभी उन्हें छूने का साहस न होता। ब्लैक बोर्ड पर हमारी शिक्षिका के लिखने के बाद उस छोटे से बचे हुए चॉक के टुकड़े को पाने के लिए मेरा मन लालायित हो उठता। मेरे हाथ में चॉक का टुकड़ा दिए जाने पर मेरी खुशी का ठिकाना न रहता।
एक बात यह भी थी कि उन दिनों शिक्षिका के हाथों से चॉक मिलना ,आज्ञाकारी छात्रा होने का बोध भी कराता था। शिक्षिका द्वारा किसी अन्य छात्रा के हाथ में चॉक दिए ,जाने पर मैं मन मसोस कर रह जाती। बस ऐसे ही चॉक ले लेकर मैने मुट्ठी भर चॉक के टुकड़े जमा किए थे।ये चॉक स्कूल के बाहर दुकान पर भी उपलब्ध होते हैं इसका ज्ञान मुझे उस समय तक न था । घर लाकर उन चॉक के टुकड़े से मैं लिख लिख कर अपनी मां और चाची को पढ़ाने का कार्य करती। वे भी मेरी प्रसन्नता के लिए मेरी इस बाल्य वृत्ति में मेरा पूरा सहयोग करती ।
वह कहते हैं ना की ,पूत के पग पालने में ही दिख जाते हैं ,बस ऐसे ही शिक्षिका बनने की नींव मेरे मन में तैयार होती गई। हालांकि घर पर मेरी बुवाओ ने शिक्षण के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त की थी। वस्तुतः मेरा भी प्रयास फलीभूत हुआ। B.Ed पूरा होने पर मेरा चयन आसनसोल के एक प्रसिद्ध प्राइवेट स्कूल में हो गया। मेरी लक्ष्य प्राप्ति में मेरे गुरुजनों के अतिरिक्त जिस व्यक्ति ने मेरा पूरा-पूरा सहयोग दिया वह है मेरे पिता, एकदम रहीम दास जी के दोहे के अनुसार” अंतर हाथ सहार दे बाहर बाहें चोट”,वाली स्थिति मिली है मुझे मेरे पिता से, वहीं दूसरी और मेरी अत्यंत सरल ,सहज मां की मौन साधना ही मुझे शक्ति प्रदान करती है।
छात्रा से शिक्षिका बनने के क्रम में कभी भी चॉक से मेरा लगाव कम न हुआ। स्कूल में बच्चों को पढाने के लिए जब दीदी चॉक देने आती तो मैं उनसे एक दो अतिरिक्त चॉक लेकर अपने पास रख लेती। एकदम उज्जवल दूध सी दिखने वाली चॉक की सुगंध ऐसी की चंदन की सुगंध भी फीकी पड़ जाती।
यद्यपि कुछ पारिवारिक उत्तरदायित्व के कारण स्कूल में पढाना संभव नहीं हो पा रहा है।
लेकिन घर पर बेटी को पढाने के समय बहुत ही प्रेम से चॉक के टुकड़े से स्लेट पर लिखकर उसे दिखाती हूं, कभी फूल तो कभी पक्षियों के चित्र बनाती हूं। साथ ही बुनती जाती हूं ताना बाना, संजोती हूं स्वप्न, बंधाती हूं ढाढस अपने मन को कि तू अनुकूल समय की प्रतीक्षा से कहीं विचलित ना हो जाना। एकाएक मेरी बीमार सासू मां के शुगर टेस्ट और इंसुलिन देने का समय हो जाता है ,मैं भाग खड़ी होती हूं अपने दायित्व के निर्वाह के लिए।
पति के दूसरे शहर में नौकरी करने के कारण मेरा दायित्व कुछ बढ़ सा जाता है, एक ही शहर में रहते हुए भी मुझे मेरे माता-पिता के घर जाने से कई महीनों तक रोक लेना मुझे खलता रहता है।
अंततः ज्ञान की देवी मां सरस्वती से मेरी यही प्रार्थना है कि मां ,मुझे कभी मेरे दायित्व से विमुख न करना, और हो सके तो चॉक के टुकड़े से मेरा लगाव कभी कम न करना।